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________________ ६६ सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन अन्य होता है तथा जीव स्वयं अपने उस बन्ध और मोक्षके प्रति उपादान कारण होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब कर्मकी उदय, उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमरूप अवस्थाएँ होती है तब जीव अपनी विकारी योग्यताके कारण क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक अवस्थाओंके रूप में अपनी परिणति बना लेता है। यानी जीव इन औदयिकादि परिणतियोंके रूपमें परिणत हो जाया करता है, कर्म तो अपनी उदयादि अवस्थाओंके आधारपर आत्माकी उन अवस्थाओंकी उत्पत्तिमें सहायक मात्र हुआ करता है। अर्थात् कर्मकी कोई परिणति यहाँपर जीवकी परिणति बन जाती हो-ऐसी बात नहीं है। "उपादीयत अनेन" इस विग्रहके आधारपर 'उप' उपसर्ग पूर्वक आदानार्थक 'आ" उपसर्ग विशिष्ट 'दा' धातुसे कर्ताके अर्थमें 'ल्युट' प्रत्यय होकर उपादान शब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ यह होता है कि जो कार्यरूप परिणत हो उसे उपादान कहते हैं। इसी प्रकार 'निमेद्य ति" इस विग्रहके आधारपर 'नि' उपसर्ग पूर्वक स्नेहार्थक 'मिद्' धातुसे कर्ताके अर्थ में 'क्त' प्रत्यय होकर 'निमित्त' शब्द निष्पन्न हुआ है । 'मित्र' शब्द भी इसी स्नेहार्थक 'मिद्' धातुसे 'क' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है। इस तरह कहना चाहिये कि जो मित्रके समान उपादानका स्नेहन करे अर्थात् उपादानको उसकी अपनी परिणतिमें मित्रके समान सहयोग प्रदान करे वह निमित्त कहलाता है। यद्यपि यहाँपर यह बात ध्यान देने योग्य है कि उपादान स्वयं कार्यरूप परिणत होनेके कारण "स्वाश्रितो निश्चयः"3 इस आगमवाक्यके अनुसार उसे कार्यका निश्चयकारण मानना उचित है और कार्यरूप परिणत न होकर उपादानको उसकी अपनी कार्यरूप परिणतिमें सहयोग मात्र देनेके कारण "पराश्रितो व्यवहारः"४ इस आगमवाक्यके अनुसार निमित्तको कार्यका व्यवहारकारण मानना उचित है, परन्तु साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि उपादान और निमित्त दोनों कारणोंमें निश्चयकारणता और व्यवहारकारणताका अन्तर रहते हुए भी कार्यकी उत्पत्ति में दोनों ही कारण उपयोगी सिद्ध होते हैं। इसलिये जिस प्रकार उपादान कारणको निश्चयकारणके रूपमें भतार्थ, सद्भुत, वास्तविक या सत्यार्थ कहा जाता है उसी प्रकार निमित्तकारणको भी व्यवहारकारणके रूपमें भतार्थ, सद्भुत, वास्तविक या सत्यार्थ कहा जाना अयुक्त नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार उपादानका कार्यरूप परिणत होना वास्तविक है उसी प्रकार निमित्तका उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होना भी वास्तविक है। इतनी बात अवश्य है कि चूंकि निमित्त उपादानकी तरह कार्यरूप परिणत नहीं होता, अतः इस दृष्टिसे उसमें यदि अभूतार्थता आदि धर्मोंका सद्भाव माना जाय तो यह भी असंगत नहीं है। इस प्रकार कहना चाहिये कि उपादान चूँकि कार्यरूप परिणत होता है इसलिये सर्वथा भतार्थ आदि है और निमित्त चंकि कार्यरूप परिणत नहीं होता. इसलिये तो कथचित अभतार्थ आदि है लेकिन उपादा नकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होता है, अतः कथंचित् भूतार्थ आदि भी है । अतः जो व्यक्ति निमित्तको कार्योत्पत्तिमें सर्वथा अकिंचित्कर मानकर उसे सर्वथा अभतार्थ आदि मान लेना चाहते हैं उनका यह प्रयास गलत ही है। अनुभवमें यह बात आती है कि उपादानको कार्यपरिणतिमें निमित्तके सहयोगकी अनिवार्य रूपसे सर्वदा अपेक्षा रहा करती है और प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जब तक उपादानको आवश्यकतानुसार स्वाभा १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक १३ । २. समयसार, गाथा ८६ की टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा "यः परिणमति स कर्ता" आदि पद्यों द्वारा यही आशय व्यक्त किया गया है। ३-४. समयसार, गाथा २७३ की समयसार-टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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