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________________ निश्चय और व्यवहार धर्ममें साध्य-साधकभाव धर्मका लक्षण वस्तुविज्ञान (द्रव्यानुयोग) की दृष्टिसे “वत्थुसहावो धम्मो' इस आगमवचनके अनुसार धर्म यद्यपि आत्माके स्वतःसिद्ध स्वभावका नाम है । परन्तु अध्यात्म (करणानुयोग और चरणानुयोग) की दृष्टिसे धर्म उसे कहते हैं जो जीवको संसार-दुःखसे छुड़ाकर उत्तम अर्थात् आत्मस्वातंत्र्यरूप मोक्ष-सुखमें पहुँचा देता है। आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रके रूपमें किया गया है, जिन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके विरोधी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण होते हैं । आध्यात्मिक धर्मका निश्चय और व्यवहार दो रूपोंमें विभाजन और उनमें साध्य-साधकभाव श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छहढालामें कहा है कि आत्माका हित सुख है । वह सुख आकुलताके अभावमें प्रकट होता है । आकूलताका अभाव मोक्षमें है। अतः जीवोंको मोक्षके मार्गमें प्रवृत्त होना चाहिए। मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप है। एवं वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो भागोंमें विभक्त हैं । जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सत्यार्थ अर्थात् आत्माके शुद्धस्वभावभूत हैं उन्हें निश्चयमोक्षमार्ग कहते हैं व जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चयमोक्षमार्गके प्रकट होने में कारण हैं उन्हें व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं । छहढालाके इस प्रतिपादनसे मोक्षमार्गका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके रूपमें विश्लेषण उनकी निश्चय और व्यवहार दो भेदरूपता व निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्षमार्गों में विद्यमान साध्य-साधक भाव इन सबका परिज्ञान हो जाता है । इसके अतिरिक्त पंचास्तिकायको गाथा १०५ की आचार्य जयसेन कृत टीकामें भी व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चयमोक्षमार्गका कारण बतलाकर दोनों मोक्षमार्गोंमें साध्य-साधक भाव मान्य किया गया है । तथा गाथा १५९, १६० और १६१ की आचार्य अमतचन्द्रकृत टीकामें भी ऐसा ही बताया गया है। निश्चयधर्मकी व्याख्या करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार जीव अनादिकालसे मोहनीयकर्मसे बद्ध रहता आया है और उसके उदयमें उसकी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववतीशवितका शुद्ध स्वभावभूत परिणमनके विपरीत अशुद्ध विभावभूत परिणमन होता आया है । भाववतीशक्तिके इस अशुद्ध विभावरूप परिणमनकी समाप्ति करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार मोहनीयकर्म के यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक ही होती है। इस तरह जीवकी भाववतीशक्तिके अशुद्ध विभावभूत परिणमनके समाप्त हो जानेपर उसका जो शुद्ध स्वभावभूत परिणमन होता है, उसे ही निश्चयधर्म जानना चाहिए । इसके प्रकट होने की व्यवस्था निम्न प्रकार है १. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक २ । २. वही, श्लोक ३। ३. छहढाला, ३-१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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