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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त ४९ भाव लिंगके रूपमें दर्शन, ज्ञान और चारित्रके धारक हैं वे निश्चयमोक्षमार्गी आगममें स्वीकार किये गये हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, क्षायोपशमिक सम्यक्ज्ञानी और क्षायोपशमिक सम्यक् चारित्री जीव हैं उन्हें भी निश्चयमोक्षमार्गी या निश्चयसम्यग्दृष्टि, निश्चयसम्यग्ज्ञानी और निश्चयसम्यक चारित्र ही कहना उचित है, उन्हें व्यवहारमोक्षमार्गी या व्यवहारसम्यग्दृष्टि, व्यवहारसम्यग्ज्ञानी और व्यवहारसम्यक् चारित्री कहना उचित नहीं है । उपर्युक्त समस्या का समाधान यह है कि व्यवहार और निश्चय इन दोनों शब्दोंके प्रकरणानुसार विविध अर्थ आगम में स्वीकार किये गये हैं । जैसे कहीं भेदरूपता व्यवहार है और अभेदरूपता निश्चय है कहीं नानारूपता व्यवहार है और एकरूपता निश्चय है, कहीं पर्यायरूपता व्यवहार है और द्रव्यरूपता निश्चय है, कहीं विशेषरूपता व्यवहार है और सामान्यरूपता निश्चय है कहीं व्यतिरेकरूपता व्यवहार है और अन्वयरूपता निश्चय है, कहीं विभावरूपता व्यवहार है, और स्वभावरूपता निश्चय है, कहीं अभावरूपता व्यवहार है और भावरूपता निश्चय है, कहीं अनित्यरूपता व्यवहार है और नित्यरूपता निश्चय है, कहीं असद्रूपता व्यवहार है और सद्रूपता निश्चय है, कहीं विस्ताररूपता व्यवहार है और संक्षेप या संग्रह - रूपता निश्चय है, कहीं पराश्रय-रूपता व्यवहार है और स्वाश्रय-रूपता निश्चय है, कहीं विधेयरूपता, साधनरूपता व कारणरूपता व्यवहार है और उद्देश्यरूपता, साध्यरूपता व कार्यरूपता निश्चय है, कहीं परम्परारूपता व्यवहार है और साक्षात्रूपता निश्चय है, कहीं निमित्तरूपता व्यवहार है और उपादानरूपता निश्चय है, कहीं बहिरंग-रूपता व्यवहार है और अंतरंग-रूपता निश्चय है, कहीं उपचार, अभूतार्थ, अद्भुतरूपता व्यवहार है और परमार्थ, भूतार्थ, सद्भूतरूपता निश्चय है । इन या इसी प्रकारके और भी व्यवहार और निश्चय शब्दके संभव अर्थोंमेंसे जहाँ किस प्रकारका अर्थ ग्रहण करनेसे प्रकरणकी सुसंगति होती हो वहाँ पर उसी प्रकारका अर्थ व्यवहार और निश्चय शब्दोंका ग्रहण कर लेना चाहिये । इस प्रकार द्रव्यलिंग के रूपमें जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र किसी जीवमें रहा करते हैं उन्हें बाह्यरूपताके आधारपर व्यवहारदर्शन, ज्ञान और चारित्र कहना तथा भावलिंगके रूपमें जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र किसी जीवमें रहा करते हैं उन्हें अन्तरंगरूपताके आधारपर निश्चयदर्शन, ज्ञान और चारित्र कहना भी संगत है एवं क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यक् ज्ञान और क्षायोपशमिक चारित्रको पराश्रयताके आधारपर व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यक्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्र नामोंसे पुकारना तथा औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक ज्ञान व औपशमिक और क्षायिक चारित्रको स्वाश्रयता के आधारपर निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यक्ज्ञान और निश्चयसम्यक् चारित्र नामसे पुकारना भी संगत है। जैनागम में जो नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके रूपमें चार निक्षेपों का वर्णन पाया जाता है उनमें से नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीनको तो व्यवहारनिक्षेपरूप जानना चाहिये तथा भावको निश्चयनिक्षेपरूप जानना चाहिये । जैसे वास्तवमें अर्थात् निश्चयरूप में तो वही जीव जैनी कहा जा सकता है जो भावसे जैनी हो अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो । लेकिन जो जीव सम्यग्दृष्टि बननेकी क्षमताको प्राप्त है उस जीव को भी द्रव्यरूपसे व्यवहारमें जैनी कहा जा सकता है। इसी प्रकार जो जीव न तो सम्यग्दृष्टि है, न सम्यग्दृष्टि बनने क्षमता प्राप्त है लेकिन चूँकि जैन कुलमें उत्पन्न हुआ है अतः उसे भी व्यवहारमें नामरूपसे जैनी कहा जाता है तथा जो जीवन तो सम्यग्दृष्टि है, न उसमें सम्यग्दृष्टि बननेकी क्षमताको प्राप्त है लेकिन गृहस्थ के छह आवश्यक कृत्यों को अवश्य कर रहा है उसे स्थापनारूपसे व्यवहारमें जंनी माना जाता है । इस तरह १. देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने || यशस्तिलकचम्पू, आश्वास ८, प्रकीर्ण विधिकल्प । ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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