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________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त ४५ तरह सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होनेवर ही उत्पन्न हुआ करता है। अर्थात् आगम में कहा गया है कि उक्त सात प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सम्ययस्व और उमत सात ही प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इसी प्रकार उक्त सात प्रकृतियोंमेंसे ही मिथ्यात्व व सम्यक्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन छह सर्वघाती प्रकृतियोंके वर्तमान समयमें उदय आने वाले निषेकका उदवाभावी क्षय व आगामी दाल में उदय आने वाले निषेकका सदवस्थारूप उपशम एवं सम्यक्प्रकृतिरूप देशघातिप्रकृतिका उदय होनेपर क्षायोपशमिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । आगम में यह बात भी कही गयी है कि उक्त औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक तीनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शन जीवको क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना प्रायोग्य और करणलब्धि पूर्वक ही उत्पन्न हुआ करते हैं।* माथमें इन लब्धियोंके सम्बन्धमें वहीं पर यह विशेषता भी बतला दी गयी है कि पांचों लब्धियोंमेंसे पूर्वकी चार लब्धियाँ तो भव्य तथा अभव्य दोनों ही प्रकारके जीवोंके संभव हैं । परन्तु करणलब्धि ऐसी लब्धि है। कि वह भव्य जीवके ही संभव है, अभव्यके नहीं।" इसका आशय यह हुआ कि जो भव्य जीव पूर्वको चार लब्धियोंके साथ-साथ करणलब्धिमें प्रवृत्त होकर उक्त सात प्रकृतियोंकी पूर्वोक्त प्रकार उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमरूप जैसी स्थिति बना लेता है उसीके अनुरूप वह अपने में औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक कोई भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर लेता है । इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपर्युक्त औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों सम्यग्दर्शनोंमें से कोई भी सम्यग्दर्शन ऐसा नहीं है जो चतुर्थ गुणस्थानसे पूर्वके किसी भी गुणस्थानमें उत्पन्न हो सकता हो, क्योंकि प्रथम गुणस्थानमें तो सम्यग्दर्शनकी घातक सर्वघाती मिध्यात्वप्रकृतिका उदय विद्यमान रहता है, द्वितीय गुणस्थान में सम्यग्दर्शनको घातक सर्वघाती अनन्तानुबन्धी कषायका उदय विद्यमान रहता हैं और तृतीय गुणस्थान में सम्यग्दर्शनकी घातक सर्वंघाती सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय विद्यमान रहता 1" चूंकि यह बात हम पूर्व में कह चुके हैं कि क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका ही अपर नाम व्यवहारसम्यग्दर्शन है और औपशमिक तथा क्षायिक इन दोनों सम्यग्दर्शनोंका ही अपर नाम निश्चयसम्यग्दर्शन है । अतः यह बात निर्णीत हो जाती है कि व्यवहार और निश्चय दोनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमेंसे कोई भी सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थानसे पूर्व के किसी भी गुणस्थानमें उत्पन्न नहीं होता है। इतना अवश्य है कि चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तकके जीवोंमें उक्त तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमे से कोई भी एक सम्यग्दर्शन संभव है। इसलिये चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक के जीव या तो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा व्यवहारसम्यदृष्टि रह सकते हैं या फिर औपशमिक अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा निश्चयसम्यग्दृष्टि रह सकते हैं । इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान में रखना चाहिये कि सातवें गुणस्थानका जो जीव उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीपर आरूढ होने के लिए अधःकरण परिणामोंमें प्रवृत्त होता है उसके व्यवहाररूप क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन १२. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २६ पूर्वा० । ३. वही, गा० २५ का उत्तरार्ध । ४-५ वही गाथा ६५० । ६. वही गाथा १५ । ७. वही गाथा १९ । ८. वही, गाथा २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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