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________________ ४० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ दर्शनावरण कर्मका कार्य जीवकी देखनेकी शक्तिको आवृत करना है, वेदनीय कर्मका कार्य जीवको शरीरादिक परपदार्थोके आधारपर यथायोग्य सुख अथवा दुःखका संवेदन कराना है, मोहनीय कर्मका कार्य जीवको पर पदार्थोके आधारपर ही यथायोग्य मोही, रागी और द्वेषी बनाकर उचित अनुचित रूप विविध प्रकारकी प्रवृत्तियोंमें व्यापृत करनेका है, आयुःकर्मका कार्य जीवको उसके अपने शरीरमें सीमित काल तक रोक रखनेका है, नामकर्मका कार्य जीवको मनुष्यादिरूपता प्राप्त करानेका है, गोत्र कर्मका कार्य कुल, शरीर तथा आचरण आदिके आधारपर जीवमें उच्चता तथा नीचताका व्यवहार करानेका है और अन्तरायकर्मका कार्य जीवकी स्वतःसिद्ध स्वावलम्बन शक्तिका घात करना है।' करणानुयोगकी व्यवस्था यह है कि इन सब प्रकार के कर्मोंको जीव हमेशा अपने विकारी भावों (परिणामों) द्वारा बाँधता है और जीवके वे विकारी परिणाम पूर्वमें बद्ध पुद्गल कर्मके उदयमें हुआ करते हैं। इस तरह जीवके साथ बँधे हुए ये कर्म उसमें अपनी सत्ता बना लेते हैं तथा अन्तमें उदयमें आकर अर्थात् जीवको अपना फलानुभव कराकर ये निर्जरित हो जाते हैं। लेकिन इतनी बात अवश्य है कि उस फलानुभवसे प्रभावित होकर यह जीव इसी प्रकारके दूसरे कर्मोंसे पुनः बंधको प्राप्त हो जाता है । ये कर्म जीवको जिस रूपमें अपना फलानुभव कराते हैं, वह जीवका औदयिक भाव है क्योंकि जीवका उस प्रकारका भाव उस कर्मका उदय होनेपर ही होता है।४ कदाचित् कोई जीव अपनेमें सत्ताको प्राप्त यथायोग्य कर्मको अपने पुरुषार्थ द्वारा इस तरह शक्तिहीन बना देता है कि वह कर्म अपनी फलदानशक्तिको सुरक्षित रखते हुए भी जीवको एक अन्तर्मुहुर्त के लिये फल देने में असमर्थ हो जाता है । कर्मकी इस अवस्थाका नाम उपशम है। इस तरह कर्मका उपशम होनेपर जीवकी जो अवस्था होती है उसे उस जीवका औपशमिक भाव कहते हैं। कदाचित् कोई जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा कर्मको सर्वथा शक्तिहीन बना देता है जिससे वह कर्म उस जीवसे अपना सम्बन्ध समूल विच्छिन्न कर लेता है । कर्मकी इस अवस्थाका नाम क्षय है और इसके होनेपर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका क्षायिक भाव कहते हैं। इसी प्रकार कदाचित् कोई जीव अपना पुरुषार्थ इस तरह करता है कि जिसके होनेपर कर्मके कुछ निश्चित अंश तो उदयरूपताको प्राप्त रहते हैं, कुछ निश्चित अंश उपशमरूपताको प्राप्त रहते है और कुछ निश्चित अंश क्षयरूपताको प्राप्त रहते हैं । कर्मकी इस प्रकारकी अवस्थाका नाम क्षयोपशम है। कर्मका इस प्रकारका क्षयोपशम होनेपर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। इस क्षायोपशमिक भावका अपर नाम मिश्रभाव १. प्रत्येक कर्मके कार्यको जाननेके लिए गो० कर्मकाण्डकी गाथा १० से गाथा ३३ तकका अवलोकन करना चाहिये। २. समयसार, गाथा ८० । ३. विपाकोऽनुभवः । स यथानाम । ततश्च निर्जरा। तत्त्वार्थसूत्र ८-२१, २२, २३ । ४. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६७ । ५. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६४ । ६. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६५ । ७. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६६ । ८. औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामको च । -तत्त्वार्थसूत्र २-१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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