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________________ ३६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्रको क्रमशः उन निश्चय सम्यग्दर्शनादिकका कारण रूप बतलाना ही है। इससे हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि मोक्षको प्राप्तिके लिए प्रत्येक जीवको मोक्षके साक्षात् कारणभूत निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारित्रकी तथा इन निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी प्राप्तिके लिए व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्रकी अनिवार्य आवश्यकता है । इस तरह दो प्रकारके मोक्षमार्गकी मान्यता उचित हो है, अनुचित नहीं है। ____ अब यदि कोई व्यक्ति निश्चयमोक्षमार्गरूप निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी प्राप्तिके बिना ही केवल व्यवहारमोक्षमार्गरूप व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकके आधार पर ही मोक्ष-प्राप्तिकी मान्यता रखते हैं तो वे गलतीपर हैं कारण कि फिर तो व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकको व्यवहारमोक्षमार्ग कहना हो असंगत होगा, क्योंकि न्यतामें वे व्यवहारसम्यग्दर्शनादिक मोक्षके साक्षात कारण हो जानेसे निश्चय मोक्षमार्गरूप ही हो जावेंगे। इस कथनका तात्पर्य यह है कि निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकमें पठित 'निश्चय' शब्द हमें निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकमें मोक्षकी साक्षात् कारणताका बोध कराता है और व्यवहारमोक्षमार्ग अथवा व्यवहार सम्यग्दर्शनादिकमें पठित 'व्यवहार' शब्द हमें व्यवहारमोक्षमार्ग अथवा व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकमें मोक्षकी परंपरया कारणताका अर्थात् निश्चयमोक्षमार्ग अथवा निश्चयसम्यग्दर्शनादिकी कारणतापूर्वक मोक्षकी कारणताका बोध कराता है। हमारे इस कथनकी पुष्टि, आगममें जो पूर्वोक्त प्रकार निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकको साध्यरूप या कार्यरूप तथा व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकको साधनरूप या कारणरूप प्रतिपादित किया गया है, उससे हो जाती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति तो निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी उपलब्धि हो जाने पर ही होती है। अतः हमें व्यवहारमोक्ष-मार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्श दिकपर लक्ष्य न देकर निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकके ऊपर ही लक्ष्य देना चाहिये, तो ऐसे व्यक्ति भी गलती पर हैं, क्योंकि वे इस बातको नहीं समझ पा रहे हैं कि जीव जब तक व्यवहारमोक्षमार्गपर आरूढ़ नहीं होगा तब तक उसे निश्चय-मोक्षमार्गकी उपलब्धि होना संभव नहीं है क्योंकि यह बात पूर्वमें स्पष्ट की जा चुकी है कि मोक्षमार्गके अंगभूतनिश्चय सम्यक्चारित्रकी उपलब्धि जीवको उपशमश्रेणी पर आरूढ़ होनेके अनन्तर अस्थायी रूपमें तो ११वें गुणस्थानमें पहुँचने पर होती है तथा स्थायीरूपमें क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होनेके अनन्तर १२वें गुणस्थानमें पहुँचने पर होती है। इस प्रकार कहना चाहिये कि जीव पंचम गुणस्थानसे लेकर जब तक उपशम या क्षपक श्रेणी मांडकर ११वें या १२वें गुणस्थानमें नहीं पहुँच जाता तब तक अर्थात् १०वें गुणस्थान तक उसके पूर्वोक्त व्यवहारसम्यकचारित्र ही रहा करता है। इससे एक यह मान्यता भी खण्डित हो जाती है कि व्यवहारमोक्ष-मार्ग पर आरूढ़ हुए बिना ही निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्ति जीवको हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक जीव जब यथायोग्य गुणस्थानक्रमसे आगे बढ़ता हुआ ही ११वें गुणस्थानमें अथवा १२वें गुणस्थानमें पहुँच सकता है जहाँ कि निश्चयसम्यक्चारित्रकी उपलब्धि उसे होती है तो इससे यह बात निश्चित हो जाती है कि व्यवहारमोक्षमार्ग पर आरूढ़ हए बिना निश्चयमोक्षमार्गकी उपलब्धि कदापि जीवको संभव नहीं है। हमारे इस कथनसे एक मान्यता यह भी खण्डित हो जाती है कि जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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