SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : २७ इन्द्रिय ही पायी जाती है। इसलिए ये सब जीव उन-उन इन्द्रियोंसे ही पदार्थोंका ज्ञानका किया करते हैं। इस प्रकार प्राणवान् शरीरोंमें जो "परपदार्थज्ञात त्व" शक्ति पायी जाती है वह शरीरका धर्म न होकर आत्माका ही धर्म है-ऐसा मानना ही उचित है । इसी तरह प्राणवान् शरीरोंमें जो "प्रयत्नकर्तृत्व" शक्ति पायी जाती है उसे भी शरीरका धर्म न मानकर आत्माका ही धर्म मानना चाहिये, क्योंकि परपदार्थज्ञातृत्व शक्ति जिन युक्तियों द्वारा शरीरकी न होकर आत्माकी ही सिद्ध होती है उन्हीं युक्तियों द्वारा प्रयत्नकर्तृत्व शक्ति भी शरीरकी न होकर आत्माकी ही सिद्ध होती है। प्रयत्नके जैन-संस्कृतिमें तीन भेद माने गये हैं-मानसिक, वाचनिक और कायिक । इनमेंसे मानसिक प्रयत्नको वहाँ पर 'मनोयोग', वाचनिक प्रयत्नोंको 'वचनयोग' और कायिक प्रयत्नको ‘काययोग' कहकर पुकारा गया है। मनका अवलम्बन लेकर होनेवाले आत्माके प्रयत्नोंको मनोयोग कहते हैं, इसी प्रकार वचन (मख) और कायका अवलम्बन लेकर होनेवाले आत्माके उस-उस यत्नको क्रमसे वचनयोग और काययोग कहते हैं। वचनोंको बोलनेका नाम ही आत्माका वाचनिक यत्न है और शरीरके द्वारा प्रतिक्षण हमारी जो प्रशस्त और अप्रशस्त प्रवृत्तियाँ हुआ करती हैं उन्हींको आत्माका कायिक प्रयत्न समझना चाहिये । मानसिक प्रयत्नका स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है मन पौद्गलिक पदार्थ है, यह बात तो हम पहले ही बतला चुके हैं। वह मन दो प्रकारका है-एक मस्तिष्क और दूसरा हृदय । जितना भी स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और शाब्द (श्रुत) रूप ज्ञान हमें होता रहता है वह सब मस्तिष्ककी सहायतासे ही हुआ करता है अतः ये सब ज्ञान आत्माके मानसिक ज्ञान कहलाते हैं। इसी प्रकार जितने भी क्रोध, अहंकार, माया, लोभ, लिप्सा, भय, संक्लेश आदि मोहके विकार तथा यथायोग्य मोह का अभाव होने पर क्षमा, मृदुता, सरलता, निर्लोभता, तुष्टि, निर्भयता, विशुद्धि आदि गुण हमारे अन्दर प्राप्त होते रहते हैं वे सब हृदयकी सहायतासे ही हुआ करते हैं अतः उन सबको भी आत्माके मानसिक प्रयत्नोंमें अन्तर्भूत करना चाहिये । इन तीनों प्रकारके प्रयत्नोंमेंसे संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवोंके तो ये सब प्रयत्न हुआ करते हैं, लेकिन असंज्ञी पंचेन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय जीवोंके सिर्फ वाचनिक और कायिक प्रयत्न ही हआ करते हैं क्योंकि मनका अभाव होनेसे इन जीवोंके मानसिक प्रयत्नका अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवोंके सिर्फ कायिक प्रयत्न ही होता है, कारण कि उनमें मनके साथ-साथ बोलनेका साधनभूत मुखका भी अभाव पाया जाता है अतः उनके मानसिक और वाचनिक प्रयत्न नहीं होते हैं। द्वीन्द्रियादिक जीव चलते- . फिरते रहते हैं इसलिए उनके शारीरिक प्रयत्नोंका तो पता हमें चलता ही रहा है, परन्तु एकेन्द्रिय वक्षादिक जीवोंकी जो शरीर-वृद्धि देखने में आती है वह उनके शारीरिक प्रयत्नका ही परिणाम है। यह बात हम पहले बतला आये हैं कि जितने भी संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी है, उन्हें पदार्थोंका ज्ञान अथवा प्रयत्न करते समय स्वसंवेदन अर्थात् 'अपने अस्तित्वका भान' सतत होता रहता है, परन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियोंके अतिरिक्त जितने भी असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय प्राणी हैं उन्हें मनका अभाव होनेके कारण यद्यपि पदार्थ-ज्ञान अथवा प्रयत्न करते समय संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंकी १. वनस्पत्यन्तानामेकम् । कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ।-त० सू० २-२२, २३ । २. कायवाङ्मनःकर्मयोगः ।-तत्त्वार्थसूत्र ६-१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy