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८ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
सड़क पर नहीं जाना, क्योंकि वहाँ हौवा बैठा हुआ है" तो यह कथन यद्यपि अध्यात्मक है, परन्तु बच्चेके प्रति कल्याण- भावनाकी दृष्टिसे कहा जानेके कारण लोकमें सत्य मान लिया जाता है। इसी तरह गायकी सुरक्षाकी दृष्टिसे अल्पश आप्तों द्वारा कसाईको गायके जाने का सही मार्ग न बतलाया जाकर जो गलत मार्ग भी बतला दिया जाता है, उसे भी सत्यात्मक लोक में मान लिया जाता है। यही कारण है कि स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकाकाचार में किसी प्राणौके लिए विपत्तिकारक सत्य वचनको भी असत्य और हितकारक असत्य वचनको भी सत्य वचन कहा है।" तथा संकल्पी हिंसाके समान पाप होते हुए भी स्वपर-कल्याणभावनाके आधारपर की गई आरम्भी हिंसाको यथास्थान उचित बतलाया गया है।"
आगमके भेद और उनके लक्षण
वर्तमान में जितना भी आगम है, उसे चार भागों में विभक्त किया गया है- १. द्रव्यानुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग और ४. प्रथमानुयोग । "
१. द्रव्यानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्यमें रखकर विश्वकी समस्त वस्तुओंकी स्वतन्त्र सत्ता, उपयोगिता और उनकी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्ययपर्यायोंका निर्धारण किया गया हो। इस अनुयोगसे संसारी प्राणियोंके लिए अपना लक्ष्य निर्धारित करनेमें सहायता मिलती है ।
२. करणानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) की लक्ष्यमें रखकर संसारी प्राणियोंकी पाप, पुण्य और धर्ममय पर्यायों और उनके कारणोंका विश्लेषण किया गया है। इस अनुयोगसे संसारी प्राणियोंको अपनी पाप, पुण्य और धर्ममय पर्यायों व उनके कारणोंका परिज्ञान होता है ।
३. चरणानुयोग वह है जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्यमें रखकर संसारी प्राणियोंको पाप, पुण्य और धर्मके मागका परिज्ञान कराया गया हो। इस अनुयोग से संसारी प्राणियोंमें अपने लक्ष्यकी पूर्ति के लिए पुरुषार्थ जाग्रत होता है ।
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४. प्रथमानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्य में रखकर तथ्यात्मक ( जैसे हो वैसे) और आपेक्षिक सत्यताको प्राप्त प्रयोजनभूत कथानकोंके आधारपर संसारी प्राणियों को पाप पुण्य और धर्मके फलोंका दिग्दर्शन कराया गया हो। इस अनुयोगसे प्राणियोंमें अपने लक्ष्य की पूतिके मार्ग में श्रद्धा ( रुचि ) जात होती है ।
अध्यात्म (आत्महित) और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ?
श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छालाके प्रथम पद्य में अध्यात्म (आत्महित) का अर्थ मुख बतलाया है और प्रथम ढालके प्रथम पचमें यह बतलाया है कि संसारके सभी अनन्तानन्त जीव सुख चाहते हैं और दुःखसे डरते हैं ।" सुखप्राप्तिका साधन (मार्ग) स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डक श्रावकाचार में धर्मको बतलाया है
१, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ५५ ।
२. वही श्लोक ५३ ।
३. प्रथमं चरणं करणं द्रव्यं नमः (शान्तिपाठ) व रत्नकरण्डकधावकाचारके पद्य ४३, ४४, ४५, व ४६ ॥ ४. आतमको हित है सुख इत्यादि ।
५. जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त, सुख चाहें दुःखतें भयवन्त ।
६. देशयामि समीचीन धर्म कर्मनिर्वहणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥
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