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________________ ६ : सरस्वती-वरदपुत्र 40 बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ अल्पज्ञको आप्त माननेका प्रयोजन ऊपर कहा गया है कि वर्तमानमें जितने कल्याणकारी उपदेशके रूपमें आगम उपलब्ध है वह साक्षात् तीर्थकर महावीरकी वाणी नहीं है, अल्पज्ञ आप्तोंकी ही वाणी है । अब यदि अल्पज्ञोंको आप्त नहीं माना जाता तो सर्वज्ञके अभाव रहनेके कारण वर्तमानमें कल्याणकारी मार्ग समाप्त हो जाता। दूसरी बात यह है कि अल्पज्ञको आप्त न माननेपर लोक-व्यवहारकी चल रही सम्पूर्ण व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाती। तीसरी बात यह भी है कि सर्वज्ञकी सत्ता और उसके उपदेशकी प्रामाणिकताका निर्णय हम अल्पज्ञ आप्तों द्वारा विरचित आगमके आधारपर ही तो वर्तमानमें कर सकते हैं। अतः अल्पज्ञको आप्त न माननेपर सर्वज्ञकी सत्ता और उसके उपदेशकी प्रामाणिकताके निर्णयके लिए आधार हो समाप्त हो जाता। ये सब कारण हैं जिसकी वजहसे अल्पज्ञको भी आप्त मानना अनिवार्य हो जाता है। इतनी बात अवश्य है और जैसा कि पूर्व में बतलाया भी जा चुका है कि सर्वज्ञकी आप्तता तो असंदिग्ध है क्योंकि वह पूर्ण वीतरागी हो जानेसे सर्वथा अवंचक वृत्ति हो जाता है परन्तु अल्पज्ञकी आप्तताका निर्णय उसमें अवंचक वत्तिका निर्णय हो जानेपर ही हो सकता है ऐसा जानना चाहिए। फिर भी जैसे सर्वज्ञका उपदेश जीवोंको हितकर होनेसे आगम कहलाता है वैसे ही अल्पज्ञ आप्तोंके उपदेशको भी जीवोंको हितकर होनेसे आगम मानना चाहिए। सर्वज्ञसे अल्पज्ञ-आप्तके उपदेश में अन्तर भी है यद्यपि ऊपर यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार सर्वज्ञका उपदेश जीवोंको हितकर होनेसे आगम कहलाता है। उसी प्रकार अल्पज्ञ आप्तोंके उपदेशको भी जीवोंको हितकर होनेसे आगम मानना चाहिए। परन्तु सर्वज्ञसे अल्पज्ञ आप्तके उपदेशमें यह अन्तर भी समझना चाहिए कि जहाँ सर्वज्ञका उपदेश उसकी सर्वज्ञताके कारण हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे नियमतः समर्थित या अबाधित होनेसे निर्विवाद रूपसे आगम कहलाता है, वहाँ अल्पज्ञ आप्तका उपदेश उसकी अल्पज्ञताके कारण जबतक हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे समर्थित या अबाधित रहेगा तभी तक वह आगम कहलावेगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अल्पज्ञ आप्तका कोई उपदेश यदि कालान्तरमें प्रत्यक्ष या अनुमानसे बाधित हो जाय, तो उसे तब हमारे लिए आगम न मानने में कठिनाई नहीं होना चाहिए। उदाहरणके रूपमें यह कहा जा सकता है कि चन्द्रमाकी रचना और भमितलसे उसकी दुरी जिस रूपमें आगममें बतलायी गई है, उससे विलक्षण ही चन्द्रमाकी रचना और भूमितलसे उसकी दुरो, उत्कर्षकी एक सीमा तक पहुँचे भौतिक विज्ञानने निर्णीत की है, जिसे अस्वीकार करना सम्भव नहीं है, इसलिये इस सम्बन्धमें यही मानना श्रेयस्कर है कि वर्तमान आगमके रचयिता आप्त चँकि अल्पज्ञ थे, अतः तथ्यपूर्ण स्थितिका पता लगानेके साधनोंकी कमीके कारण जैसा उनकी समझमें आया वैसा प्रतिपादन चन्द्रमाकी रचना और भमितलसे उसकी दूरी आदिका उस समय उन्होंने वर्णन किया था। इस प्रतिपादनको सर्वज्ञ आप्तके उपदेशके आधारपर किया हुआ नहीं समझना चाहिए। कारण कि सर्वज्ञके ज्ञानमें असंख्य परमाणओंके पिण्ड-स्वरूप चन्द्रमाका प्रत्येक परमाणु अपनी परिणतियोंके साथ पृथक्-पृथक ही प्रतिभाषित हो रहा है, ऐसी दशामें उसको उन समस्त परमाणुओंका चन्द्र पिण्डरूपसे ज्ञान होना सम्भव नहीं है तथा श्र तज्ञानका अभाव हो जानेसे श्रतज्ञानकी विषयभत चन्द्रमाकी भूमितलसे दुरी आदिका ज्ञान भी सर्वज्ञको सम्भव नहीं है, अतः निर्णीत होता है कि इन बातोंका प्रतिपादन सर्वज्ञ द्वारा नहीं किया गया है। ___ इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि सर्वज्ञ स्वतः-सिद्ध, अनादि-निधन और अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ताविशिष्ट प्रत्येक वस्तुका दृष्टा और ज्ञाता है तथा प्रत्येक वस्तुकी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय सभी पर्याएँ पाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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