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________________ ४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ आप्त और अनाप्तके लक्षण स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें ही आप्तका लक्षण निम्न प्रकार बतलाया है--- आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।५।। अर्थ-जो अपने सम्पूर्ण दोषोंको नष्ट कर चुका हो, सर्वज्ञ हो गया हो और धर्म-मार्गका प्रवर्तक बन चुका हो, उसे ही आप्त जानना चाहिए, क्योंकि इन तीन गुणोंके प्रकट हुए बिना आप्तता सम्भव नहीं है। परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके उपर्युक्त सूत्रकी टीका प्रमेयरत्नमालामें आप्तका लक्षण निम्न प्रकार निश्चित किया गया है यो यत्रावंचकः स तत्राप्तः। अर्थ-जो पुरुष जिस विषयमें अवंचक है अर्थात् दूसरोंके साथ ठगाई नहीं करता है, वह पुरुष उस विषयमें आप्त है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार और प्रमेयरत्नमालाके उपर्युक्त उद्धरणोंसे यह बात निर्णीत होतो है कि सर्वज्ञ तो आप्त होता ही है क्योंकि वह पूर्ण वीतरागी हो जानेसे सर्वथा अवंचकवृत्ति हो जाता है । लेकिन अल्पज्ञ भी यदि किसी विषयमें अवंचकवृत्ति हो तो उसे भी उस विषयमें आप्त जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि हितकर उपदेशका नाम आगम है और जो हितकर उपदेश देता है वह आप्त है। उस उपदेशकी हितकारिताका आधार उपदेश देनेवाले पुरुषकी अवंचक-वृत्ति ही हुआ करती है तथा अवंचकवृत्तिका निर्णय उसमें (उपदेश देनेवाले पुरुषमें) पाई जानेवाली वीतरागता (निःस्वार्थवृत्ति) से होता है। अतः आप्तताका निर्णय पुरुषमें विद्यमान वीतरागता (निःस्वार्थवृत्ति)के आधारपर ही करना चाहिए। इस तरह सर्वज्ञके साथ अल्पज्ञ भी आप्तकी कोटिमें गभित हो जाता है। उक्त कथनसे यह भी सिद्ध होता है कि अल्पज्ञ भी सर्वज्ञको तरह तभी आप्त हो सकता है जब कि वह अवंचक वृत्ति हो । इसका फलितार्थ यह है कि अल्पज्ञ आप्त और अनाप्तके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। उनमेंसे जो अल्पज्ञ अपने में यथासम्भव पाई जानेवाली वीतरागता (निःस्वार्थ वृत्ति) के आधारपर अवंचक वृत्ति होते हैं, वे आप्त कहलाते हैं और जो अल्पज्ञ अपने में पाई जानेवाली सरागता (स्वार्थपूर्ण वृत्ति)के आधारपर वंचकवृत्ति होते हैं, वे अनाप्त कहलाते हैं । आगम और आगमाभासका प्रवर्तन आगम और आगमाभासका प्रवर्तन अनादिकालसे चला आ रहा है, जिसका विवेचन इस प्रकार है कि निश्चयकाल (स्वतःसिद्ध कालनामा पदार्थ) नित्य (अनादिसे अनन्त काल तक रहनेवाला) है। इस निश्चय-कालकी पुद्गल-परमाणुके अत्यन्त मन्द-गमनके आधारपर विभक्त अखण्ड-वृत्तिरूप समय और यथायोग्य समयोंके समूहरूप आवलो, घड़ी, मुहूर्त, घण्टा, प्रहर, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष तथा वर्षोंके भी समूह --यह सब व्यवहारकाल है । यद्यपि ये सब निश्चय-कालकी पर्याएं है परन्तु इन्हें व्यवहारकाल इसलिए कहते हैं कि इनका अस्तित्व मूलतः परवस्तुभूत पुद्गल-परमाणुके अत्यन्त मन्द गमनके आधारपर निष्पन्न होनेसे इनमें पराश्रितता पाई जाती है। इस व्यवहारकालका प्रवर्तन प्रवाहरूपसे अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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