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१२४ : सरस्वती - वरद्पुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
बघेरवार कई राजपूत कुल । पल्लीवाल : बड़गूजर राजपूत ।
परवार राजपूत ।
असाटी : किसान संभवतः अहीर |
राजस्थानकी अधिकतर जैन जातियाँ राजपूतोंसे उत्पत्ति बताती हैं । परन्तु बहुतसे राजपूत घरानों (कछवाहा, भट्टी आदि) का उद्भव उसी समय हुआ जब बनियोंका उद्भव हो रहा था । शिलालेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि कुछ प्राचीन कुलोंको छोड़कर, अधिकतर राजपूत कुल काफी बाद में उत्पन्न हुए । चन्देलोंके उल्लेख ९वीं शताब्दी के आरम्भ में, कछवाहोंके १०वीं शताब्दी के मध्यमें, मिलते हैं । राजपूत कुल स्वतंत्र जातियाँ नहीं थीं, बल्कि परिवार थे। उत्तम राजपूतों में आज भी कुलका गोत्रकी तरह प्रयोग होता है । बनिया जातियोंकी उत्पत्ति के समय (१०वीं शताब्दी के आसपास) यह सम्भव नहीं लगता कि राजपूत कुल दूर-दूर जाकर बस चुके हों वे एक ही स्थानमें अनेक कुलोंके राजपूत बसे हों । यह अवश्य सम्भव है कि बनियों की उत्पत्ति उन्हीं जातियोंसे हुई हो जिससे राजपूत उत्पन्न हुए हैं ।
गोला पूर्व आदि जातियोंके ईक्ष्वाकु या यदु कुलोंसे उत्पत्तिके उल्लेख प्राचीन नहीं हैं अतः उन्हें विशेष महत्त्व नहीं दिया जा सकता। यदि प्राचीन उल्लेख मिलें तो भी उन्हें प्रामाणिक नहीं माना जा सकता क्योंकि प्राचीन क्षत्रियोंके राज्यकाल व बनिया जातियोंकी उत्पत्ति में करीब डेढ़ हजार या अधिक वर्षोंका अन्तर । दक्षिण भारत के कुछ राजवंशीने ईक्ष्वाकु व यादव शब्दोंका प्रयोग किया था। आंध्र में तीसरी शताब्दी के मध्य में एक राज्यकुल ईक्ष्वाकु कहलाता था । जिला रायपुर में श्रीपुर (सिरपुर ) स्थान में ५वींसे १०वीं शताब्दी के बीच सोमवंशी या पांडुवंशी ( अर्थात् यदुकुलके) कुलका अस्तित्व रहा है । ग्यारहवीं शताब्दी में बंगालमें यादव नामका राजकुल रहा है । परन्तु इनकी भी उत्पत्ति प्राचीन क्षत्रियोंसे निश्चित नहीं है । पर ईक्ष्वाकु व यदु कुलोंके वंशज अवश्य रहे होंगे व कुछ बनिया जातियोंकी इनसे उत्पत्ति असंभव नहीं है ।
कई अन्य जातियोंकी तरह गोलापूर्वी में भी दोहरी गोत्र परंपरा रही है । नवलसाह चंदेरियाने अपना गोत्र प्रजापति व बैंक चंदेरिया लिखा है । वर्तमान में गोलापूर्वोंमें दोहरी गोत्र परम्पराका कोई स्मरण नहीं है और न ही प्रजापति गोत्रका अस्तित्व है । नवलसाहने वर्धमान पुराण में ५८ बैंक (गोत्र) की एक सूची दी है । इसमें एक या दो गोत्र गलतीसे दो बार गिन लिये गये हैं । नवलसाहका गोत्रोंके नामोंका संग्रह पूरा नहीं था । कालांतर में किसीने इस सूची में संशोधन करके कुछ गोत्रोंके नाम निकालकर कुछ अन्य नाम जोड़ दिये । वर्धमानपुराणकी जिस प्रतिका उद्धरण गोलापूर्व डायरेक्टरीमें है वह संशोधित प्रति है । संशोधनकारने बेंक शब्दके स्थानपर गोत्र शब्दका प्रयोग किया है व सवैया इकतीसा छंदमें एक जगह "ठीक कीजिये" जोड़ा है। मुद्रित वर्धमान पुराण मूल प्रतिपर आधारित है ।
सभी प्राप्त गोत्रावलियोंको देखकर लगता है कि गोत्रोंकी कुल संख्या ७३ के आसपास तक रही है । गोला पूर्व डायरेक्टरीकी जनगणनामें केवल ३३ ही गोत्र मिले थे । ऐसा प्रतीत होता है कि गोत्रोंकी संख्या घटती बढ़ती रही है । कुछ परिवार अपने स्थानके नामका प्रयोग करने लगे व कालांतर में उस स्थानके नामपर नया गोत्र बन गया । कुछ गोत्र व्यवसायके कारण बन गये होंगे। किसी-किसी गोत्रके सभी परिवार विप्लव, महामारी या दुर्भिक्ष में मारे गये । कुछ गोत्र सम्भवतः अन्य जातियोंमें मिल गये हों । अहार ई० १६६३ के लेखमें गोलापूर्व जातिमें पैंथवार गोत्रका उल्लेख है, यह सभी गोत्रावलियों में भी है पर अब नष्ट हो चुका है । सन् १९४१ में छोड़कटे केवल १६ व पञ्चरत्न केवल १३ थे । दुर्गले गोत्रका केवल एक व्यक्ति था ।
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