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पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी :
एक अध्ययन
• पं० विजयकुमार जैन - साहित्य दर्शनाचार्य, श्रीमहावीरजी
जेन आगम ग्रन्थोंपर सोनगढ़ी विचारधाराको थोपनेके बाद एक नया आन्दोलन और चल पड़ा है । इस विचारधारा के अनुसार वस्तुतत्त्वको एकान्त दृष्टिसे समझा-समझाया जाता है । पर एकान्तदृष्टिसे वस्तुका सम्यग् विवेचन नहीं होता । सम्यग् विवेचनके अभाव में गृहीत तत्त्व तो मिथ्या होता ही है, हमारी दृष्टि भी मिथ्या हो जाती है ।
सोनगढ़ विचारधारा वस्तुत्पत्ति या द्रव्यपरिणमनमें निमित्त और उपादान दोनों कारणों में से उपादानकारणको ही कारण मानती है । निमित्तको तो वह अकिंचित्कर स्वीकार करती है । वह तो उपस्थित मात्र रहता है, ऐसा उसका कथन है । इसी तरह वह पर्यायोंको क्रमनियमित मानकर नियतिवादको अङ्गीकार करता है । आचार्य परम्परा के अनुसार परिणमनमें दोनों कारणोंका सम सहकार है, जैसा कि समन्तभद्र स्वामी कहते हैं । बाह्येतरोपाधिसमग्रतेय कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।
अर्थात् बाह्य-निमित्त और इतर अन्तरङ्ग कारणोंकी समग्रतासे ही कार्य होता है, यही द्रव्यका अपना स्वभाव है ।
सोनगढ़ विचारधारा के पुष्ट करने हेतु डॉ० हुकुमचन्द्रजी भारिल्लने 'क्रमबद्ध पर्याय' पुस्तक लिखी, जिसमें पर्यायों को एकान्ततः क्रमनियमित मानकर नियतिवादको पुष्ट किया गया है। जैन दर्शन और जैन न्यायके ख्यातिप्राप्त विद्वान् स्व० डॉ० पण्डित महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्यने अपने 'जैनदर्शन' ग्रन्थ में सोनगढ़की इस एकान्त विचारधाराका विविध तर्कोंसे विशदरूप में खण्डन किया है । जैन मनीषी पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य ने भी इस लघु पुस्तिका में सर्वथा पर्यायोंकी क्रमबद्धताको असंगत और जैन तत्त्वदृष्टिसे विपरीत बताते हुए बहुत स्पष्ट रूपमें बताया है कि पर्याय क्रमबद्ध ही नहीं, अक्रमबद्ध भी होती हैं ।
सर्वप्रथम उमास्वामी महाराज के 'गुणपर्ययवद्द्रव्यम्' ( त० सू० ५-३८ ) का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए - (१) द्रव्यपर्याय (२) गुणपर्यायके रूप में दो प्रकारकी पर्यायें बतायी हैं ।
दुसरे अनुच्छेदमें सूत्रकारके ' सद्द्रव्यलक्षणम्' ( त० सू० ५-३० ) सूत्र पर विचार करते हुए द्रव्य तथा द्रव्यके स्वभावभूत-गुणोंको 'सत्' स्पष्ट किया हैं । अनन्तर इसी अनुच्छेद में बताया है कि द्रव्यमें ही नहीं गुणोंमें भी प्रतिसमय उत्पाद व्यय चल रहा है। साथ ही उत्पाद और व्ययकी व्याख्या भी स्पष्ट की गई है । आगे पर्यायों को दूसरे प्रकारसे द्विरूप बताया गया है । ( १ ) स्वप्रत्यय ( २ ) स्व- परप्रत्य । जो पर्यायें निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीके बिना ही उपादानकारणजन्य हैं वे स्वप्रत्यय व जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीकी सहायतापूर्वक उपदानकारणजन्य हैं वे स्वपरप्रत्यय पर्यायें हैं ।
इन द्विविध पर्यायोंकी पुष्टिके लिये समयसार के सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकारकी गाथा ३०८-३११, ३१२, सर्वार्थसिद्धि व नियमसारादिके प्रमाण दिये हैं ।
३१३,
आगे बताया गया है कि निमित्त (१) प्रेरक और (२) अप्रेरक ( उदासीन ) दो प्रकार के होते हैं । प्रेरक निमित्त वे हैं जिनके साथ कार्यकी अन्वयव्यतिरेक व्याप्तियाँ हों तथा उदासीन निमित्त वे हैं जिनकी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हों । श्री व्याकरणाचार्यजीने बताया है कि प्रेरक निमित्तोंके बलसे कार्य आगे पीछे भी किया जा सकता है । तथा अनुकूल उदासीन निमित्तोंका भी यदि उपादानको सहयोग प्राप्त न हो तो उस उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परिणति नहीं हो सकती है । जैसे - उपादानरूप शिष्यकी पठनक्रिया निमित्तकारण (प्रेरक) भूत अध्यापक और अप्रेरक प्रकाश आदि निमित्तोंकी सहायता के बिना नहीं हो सकती है । ( २ ) प्रेरक निमित्तकारणभूत इञ्जन और अप्रेरक रेलपटरीरूप निमित्तोंके बिना रेल नहीं चल सकती ।
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