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________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ७३ बल देता है। उपचरितका अर्थ वह पक्ष अवास्तविक, कल्पित करता है। प्रायः उदाहरण दिया जाता है। जैसे किसी घड़ेमें घी रखा जाता है। उसे व्यवहारमें घोका घड़ा कहते हैं। घड़ा तो मिट्टीका है, घीका नहीं । किन्तु उपचारसे, व्यवहारके लिये उसे घीका घड़ा कह देते हैं। यह है व्यवहारको उपचरित मानने वाला पूर्वपक्ष । यहाँ पूर्वपक्षसे हमारा आशय पं० फूलचन्द्रजीसे है और उत्तरपक्षसे आशय व्याकरणाचार्यजीसे है। पहले हमें यह समझना आवश्यक है कि निश्चय और व्यवहार कहने में आचार्योंकी दृष्टि क्या थी? इस विषयमें आचार्य कुन्दकुन्दने सन्तुलित दृष्टि अपनाई है। उन्होंने दोनों ही दृष्टियोंसे वस्तु-स्वरूपका कथन किया है। पंचास्तिकाय, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थोंमें द्रव्यकी परिभाषा दो प्रकारसे की है-(१) जिसकी सता है अर्थात् जो सत्स्वरूप है, वह द्रव्य है और जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाये जायें, वह सत्स्वरूप है। (२) जो गुण और पर्याय वाला है वह द्रव्य है । द्रव्यमें अखण्ड एकरूपता या ध्रौव्यता निश्चय है, उसमें भेदरूपता या उत्पाद, व्ययरूप परिणमन व्यवहार है। वस्तुका कालिक स्वभाव अर्थात् गुण निश्चय है और पर्यायदृष्टि व्यवहार है। द्रव्यमें अभेद, अखण्ड, एकत्वकी दृष्टि निश्चय है, भेद, खण्ड, अनेकत्वकी दृष्टि व्यवहार है। वस्तु या वस्तुरूपकी सामान्यरूपता निश्चय है और विशेषरूपता व्यवहार है । समयसारकी गाथा ६, ७ में आचार्य कुन्दकुन्दने उदाहरण देकर बताया है कि आत्मा स्वरूपकी दृष्टिसे न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है, बल्कि ज्ञायकस्वरूप है, यह निश्चय है। व्यवहारसे-भेददृष्टिसे आत्मामें दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। अर्थात् स्वाश्रयता-स्वसापेक्षता निश्चय है और स्वपरसापेक्षता व्यवहार है। उपादानता निश्चय है और निमित्तता व्यवहार है । वस्तुके इन निश्चय और व्यवहाररूप धर्मोको नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप निक्षेपोंमें अन्तर्भूत किया गया है और उन धर्मोके ज्ञायक ज्ञानको और उनके प्रतिपादक शब्दको नयोंमें अन्तर्भूत किया गया है । और इन नयोंको श्रुतप्रमाण कहा गया है। इस प्रकार व्यवहार भी निश्चयके समान वास्तविक (सद्भूत) है, उपचरित नहीं, जैसा कि पं० फूलचन्द्रजी मानते हैं। जहाँ शास्त्रमें व्यवहारको उपचरित कहा गया है, वहाँ उसका अर्थ कल्पित या मिथ्या नहीं, बल्कि वहाँ उपचारका अर्थ पराश्रितता है। __आचार्य अमृतचन्द्रने समयसारकी गाथा १२ की टीका करते हुए किसी प्राचीन शास्त्रसे एक गाथा उद्धृत की है "जइ जिणमयं पवज्जइ, ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ, तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥" इसका अर्थ यह है-यदि तुम जिनमतका प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनयके बिना तो तीर्थका नाश हो जायेगा और निश्चयनयके बिना तत्त्व (वस्तुस्वरूप)का लोप हो जायेगा। __ यहाँ 'तीर्थ' शब्द विशेष उल्लेखनीय है। तीर्थशब्दमें सम्पूर्ण व्यवहारमार्ग गर्भित है-जैनधर्मको धारण करनेवाले मनुष्योंकी सामाजिक संगठना, मन्दिर-मूर्तियाँ, देव-गुरु-शास्त्र और उनके प्रति भक्ति, पूजा अर्चा, व्रत, उपवास, तीर्थक्षेत्र आदि । यदि व्यवहार सर्वथा मिथ्या है तो मिथ्याके ऊपर खड़ा धर्म भी मिथ्या होगा। फिर मिथ्याको माननेका लाभ क्या । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश नहीं हो सकता । लोकमें भी देखा जाता है कि आदर्श तो लक्ष्य होता है और व्यवहार उस लक्ष्यकी प्राप्तिका साधन । ये दोनों नय हैं। नय सापेक्ष होते हैं, निरपेक्ष नहीं । निरपेक्ष नय तो मिथ्या होते है। आचार्य अमतचन्द्रने स्यादवादको दोनों नयोंके विरोधका विध्वंसक बताया है। २-१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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