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________________ ७० : सरस्वती वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ ओ कानजी स्वामी और पूज्य वर्णीजी दोनों ही जैनसमाजकी महान विभूतियोंमें थे, जैनसमाजके ऊपर दोनोंका महान प्रभाव था। दोनोंके प्रभावका अन्तर अथवा मूल्याङ्कन आदरणीय पण्डित बंशीधरजीके शब्दोमें इस प्रकार किया जा सकता है "जहाँ कानजी स्वामीके अल्प सम्पर्क में आया हआ प्रत्येक व्यक्ति अपनेको समयसारका वेत्ता और सम्यग्दृष्टि समझने लगता है, वहाँ पूज्यपाद वर्णीजीके सम्पर्क में आया हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्तःकरण में तत्त्वजिज्ञासुताका हो भाव उत्पन्न करता है।" -जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसा, पृ० ३ । वास्तवमें कानजी स्वामीका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावक था । सम्पूर्ण जैन समाज में अध्यात्मके सम्बन्धमें धारावाहिकरूपमें भाषण देनेवाला ओजस्वी वक्ता कानजी स्वामीके समान दूसरा कोई नहीं था। किन्तु वे दूसरी समाजसे दिगम्बर समाजमें आये थे। इसलिये उनके पुराने अच्छे-बुरे संस्कार भी उनके साथ आये थे। मसलन वे आचार्यपदसे आये थे। यहाँ आकर आचार्य तो नहीं रहे, किन्तु उस पदका जो अहंभाव था, वह निकल नहीं सका । फलतः वे अपने आपको महाव्रती संयमी मनियोंसे भी ऊचा समझते रहे और दुसरे लोग भी ऐसा ही समझें. इसके लिये वे मनियोंकी निन्दा भी करते थे। वे अपने आपको सकमार और कोमल समझते थे. इसलिये संयम और चारित्रकी कठोरतासे प्रयत्नपूर्वक अपने आपको बचाते रहे। इसीलिये वे व्यवहारचारित्रकी सदा निन्दा करते रहे और उसे बन्धका कारण कहते रहे। शद्धोपयोगकी अपेक्षासे पुण्य शभोपयोगको शास्त्रोंमें हेय बताया है, किन्तु स्वामीजी पुण्यको विष्ठा बताते रहे। जबकि वे स्वयं पुण्यका भोग करते रहे, अपने जीवनके अन्तिम दिनोंमें जब पुण्य क्षीण हो गया और भयंकर रोगसे भयंकर पीड़ा होने लगी. तो तथाकथित आत्मानुभव गायब हो गया और शरीरके मोहके कारण वेदनासे आर्तनाद करते रहे। स्वामीजी प्रारम्भसे ही जैनधर्मकी सैद्धान्तिक विचारधाराके विरुद्ध बोलते रहे। वे कार्य सम्पादनमें पदार्थकी स्व-उपादान शक्तिकी भूमिकाको निर्णायक मानकर निमित्तको सर्वथा अकिंचित्कर मानते रहे। उन्होंने कार्य-कारणव्यवस्थाको अमान्य कर दिया। उनकी मान्यता है कि द्रव्योंका परिणमन परनिरपेक्ष और क्रमनियमित होता है। वे यह भी अस्वीकार करते है कि जीवके वैभाविक परिणामोंके कारण कार्मणवर्गणाएँ कर्मरूप परिणमित होती है और कर्मोदयके कारण जीवमें विभावभाव होते हैं। वे अकालमरणको भी नहीं मानते । अर्थात उनकी मान्यतामें जैनधर्मकी सम्पूर्ण द्रव्य-व्यवस्था ही काल्पनिक है। स्वामीजीकी इन और ऐसी ही अन्य स्वतंत्र मान्यताओंके कारण जैन समाजके विद्वदवर्गमें तीव्र रोष व्याप्त हो गया और इसके विरोध पत्र-पत्रिकाओंमें लेख निकलते रहे। तब उनका समाधान करने और स्वामीजीकी स्वतंत्र मान्यताओंपर दार्शनिक मुलम्मा चढ़ानेके लिये पं० फूलचन्द्रजीने 'जैनतत्त्व मीमांसा पर लिखी। उसको जैन सिद्धान्तकी मान्यताओंके विरुद्ध समझकर पण्डित बंशीधरजीने 'जैनतत्त्व मीमांसाकी मीमांसा' नामक सयुक्तिक और सप्रमाण पुस्तक उत्तरस्वरूप लिखी। मेरी विनम्र रायमें इस पुस्तकने तत्व मोमांसा'का मलम्मा उतार दिया है। यहाँ मेरा विचार 'जैनतत्त्व मीमांसाको मोमांसा'की मीमांसा करनेका है। [२] 'जनतत्त्व मीमांसा में पं० फलचन्द्रजोने कुछ प्रस्थापनाएँकी है। किन्तु आगमविरुद्ध होनेसे पं० बंशीधरजीने सही परिप्रेक्ष्यमें इनकी मीमांसा की है। वे प्रस्थापनाएं इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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