________________
२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ६१
पंडितजीसे कब-कब और कहाँ-कहाँ मिलना हुआ, अब याद नहीं आता, किन्तु उनके चेहरेकी सौम्यता और वाणीकी मृदुलताकी छाप अब तक मेरे मन पर बनी हुई है ।
आज सार्वजनिक जीवनमें मल्योंका बड़ा ह्रास हो गया है। जैन समाज भी उसका अपवाद नहीं है। पंडितजीका सर्वोत्तम अभिनन्दन यही होगा कि जैन समाज उनकी कठोर साधनाका स्मरण करे, उससे प्रेरणा लें, और अपने आचरणसे जैनधर्म, संस्कृति और दर्शनके उज्ज्वल स्वरूपको प्रस्तुत करके एक नये युगकी स्थापनामें सहायक हों।
"जीवेम शरदः शतम्" -पंडितजी शतायु हों।
विलक्षण प्रतिभाके मनीषी • प्रो० उदयचन्द्र जैन, जैन-बौद्धदर्शनाचार्य, पूर्व रीडर, का० हि० वि०
श्रीमान् पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य एक लब्धप्रतिष्ठ वयोवृद्ध विद्वान् हैं। आपमें अनेक ऐसी विशेषताएँ हैं जिनके कारण जैन समाजमें ही नहीं, किन्तु भारतीय समाजमें भी आपका विशिष्ट स्थान है। विद्वत्समाजमें तो आप एक प्रतिभाशाली मूर्धन्य विद्वान् के रूपमें सुप्रसिद्ध हैं।
आपने प्रातः स्मरणीय परमपूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी द्वारा संस्थापित श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीमें रहकर ११ वर्ष तक उच्चकोटिका अध्ययन किया है। आप जैनसमाजके प्रथम व्याकरणाचार्य है। व्याकरणाचार्यकी उपाधि प्राप्त करना कोई साधारण बात नहीं है । साहित्य, दर्शन, न्याय आदि विषयोंमें व्याकरण अति कठिन विषय है। ऐसे कठिन विषयमें आपने प्रवीणता प्राप्त करके यह सिद्ध कर दिया है कि दढ़ संकल्प वाले व्यक्तिके लिए कोई कार्य कठिन नहीं होता है। अतः व्याकरणाचार्यकी उपाधि आपकी विशिष्ट प्रतिभाकी सूचक है।
जैनदर्शन ओर जैनसिद्धान्तके मूर्धन्य विद्वान होनेपर भी आपने शिक्षा-समाप्तिके अनन्तर किसी विद्यालय आदिमें सर्विस नहीं की, किन्तु बीनामें स्वतंत्र व्यवसायको अपनाकर वणिकपुत्रोंमें भी अपना श्रेष्ठ स्थान बना लिया । ऐसा कहा जाता है कि सरस्वती और लक्ष्मीका विरोध है। परन्तु आपने इस कथनको असत्य सिद्ध कर दिया है । आप सरस्वतीके वरदपुत्र होकर भी लक्ष्मीके भी परम प्रिय पुत्र बने ।
उच्चकोटिके विद्वान् होनेके साथ ही आप स्वतन्त्र विचारक और लेखक भी हैं। व्यवसायमें संलग्न .. व्यक्ति प्रायः चिन्तन तथा लेखनके लिए बहुत कम समय निकाल पाता है। परन्तु आप इसके अपवाद हैं। यही कारण है कि आपकी लेखनोसे 'जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार', 'जनदर्शन में कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था' आदि ऐसी अनेक कृतियोंका सृजन हुआ है जो महत्त्वपूर्ण होनेके साथ ही पठनीय और मननीय हैं। इतना ही नहीं, अभी ८४ वर्षकी ववस्थामें भी आप लेखन तथा चिन्तनके कार्य में बराबर संलग्न रहते हैं।
जैन विद्वानोंमें स्वतंत्रता सेनानी प्राय: बहुत-कम मिलेंगे। किन्तु आपने स्वतंत्रता सेनानी होनेका महान गौरव प्राप्त किया है । सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें आपने सक्रिय भाग लेकर सागर, नागपुर और अमरावतीको जेलोंम ९-१० मास तक अनेक कष्टोंको शान्तभावसे सहन किया है।
समाज-सेवा, देश-सेवा और साहित्य-सेवा तीनोंको आपने अपने जीवनका प्रधान लक्ष्य बनाया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org