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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५३
अध्यक्ष थे। अध्यक्षीयपदसे दिया गया आपका भाषण विद्वत् समूहमें समादृत हुआ था। इसी अधिवेशनमें भी गोपालदासजी वरैयाका शताब्दी-महोत्सव मनानेका निश्चय किया गया। फलस्वरूप डॉ० नेमीचन्दजी शास्त्री. आराके सम्पादकत्वमें विद्वत् परिषद में "गोपालदास वरैया स्मृतिग्रन्थ' प्रकाशित किया। शताब्दीसमारोह दिल्ली में स्वर्गीय साह शान्तिप्रसादजीकी अध्यक्षतामें सम्पन्न हुआ था। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय सिद्ध हुआ कि उसकी सम्पूर्ण प्रतियाँ शीघ्र ही समाप्त हो गयीं।
श्रावस्ती पंचकल्याणकके समय होनेवाला नैमित्तिक अधिवेशन भी आपकी ही अध्यक्षतामें सम्पन्न हआ था। विद्वत्परिषदके सभी अधिवेशनोंमें उसके सदस्य बड़ी रुचिसे भाग लेते थे। सदा जागरूक
८४ वर्षको अवस्थामें भी आप समाज-हितमें जागरूक हैं। दुकानका कार्य पुत्रोंने सम्हाल लिया है। उस ओरसे निश्चित हो आप साहित्य-साधनामें लीन रहते हैं । मैंने देखा है कि आप प्रातः चार बजेके पूर्व ही उठकर तथा स्नानादिसे निवृत हो अपने अध्ययन और लेखनके कार्यमें लग जाते हैं। वीर प्रभुसे प्रार्थना है कि यह सरस्वतीका वरद पुत्र स्वस्थ रहता हुआ देश एवं समाजका दीर्घकाल तक मार्गदर्शन करता रहे।
वन्दनीय व्यक्तित्वके धनी •श्री नीरज जैन, सतना
बीना नगरमें प्रवेश करते ही तिराहेसे जैन मंदिरकी ओर चलनेपर बायें हाथ एक सामान्य-सी कपड़ेकी दुकान है। दुकानकी गादीपर कपड़ोंके थानके बजाय आगमग्रन्थोंका विस्तार हो और सादगी भरा. ऊँचा पूरा, एक क्षीण-काय वृद्ध पुरुष उस वातावरणमें एकाग्रतापूर्वक, सिर झुकाए अपने लेखनमें दत्त-चित्त दिखाई दे जाय, तो किसीसे भी पूछनेकी आवश्यकता नहीं है। वही हैं सिद्धांताचार्य पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य ।
लगभग पचासी साल पहले बुन्देलखण्डके एक निपट देहातमें जन्मा हुआ बालक वंशीधर शैशवसे ही ज्ञान-पिपासु रहा । अनुकूल साधनोंके अभावमें भी कैसे उसकी यह ज्ञान-यात्रा आगे बढ़ती रही, इसका विवरण एक रोचक कथासे कम नहीं है। उस यात्रामें एक ओर जहाँ कष्ट-साध्य साधनाका दर्शन होता है, वहीं दूसरी ओर सांसारिक महत्त्वाकांक्षाओंको पीछे ढकेल कर सरस्वतीको सेवाके लिए आगे बढ़नेका दढ संकल्प भी अनायास झलकता है।
जैन विद्याकी विलुप्त प्राय स्थितिमें, रूढ़ियोंसे जकड़े हुए और अज्ञान-अंधकारसे भरे बुन्देलखण्डमें जिन्होंने ज्ञानकी ज्योति प्रज्ज्वलित की, उन प्रातःस्मरणीय युगपुरुष श्री गणेशप्रसादजी वर्णीका दिव्य अवदान ही बंशीधरके लिए भी प्रश्रय-वितान बनकर छा गया । जिस संतका पारस-स्पर्श पाकर राहके अनेक मटमैले कंकड़ धीरे-धीरे कून्दन बनते चले गये, उसी पावन स्पर्शने बंशीधरको भी अज्ञसे विज्ञ बना दिया। पूज्य वर्णीजीके द्वारा बनारसमें स्थापित स्याद्वाद् महाविद्यालयमें एक बार प्रवेश क्या मिला, बंशीधरकी ज्ञान-पिपासा बढ़ती ही चली गई । जैनदर्शन शास्त्री, साहित्यशास्त्री, व्याकरणाचार्य और न्यायतीर्थको परीक्षाएँ एकके बाद एक शानदार ढंगसे उत्तीर्ण करनेके बाद भी ज्ञानार्जनकी तृष्णा अतृप्त ही बनी रही। शायद यह पिपासा उन्हें किन्हीं सूदुर ऊँचाइयों तक ले भी जाती, परन्तु तभी 'घर कारागृह, बनिता बेड़ो और परिजन जन रखवारोंने" मिलकर उन्हें बाँध लिया।
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