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________________ अप्रतिम प्रतिभाके धनी • डॉ० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर आद्य व्याकरणाचार्य सरस्वतीके वरद् पुत्र पंडित बंशीधरजी जैन समाजके आद्य व्याकरणाचार्य हैं । 'गुरुणां गुरुः' गोपालदासजी वरैया और पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णीके सत्प्रयाससे मुरैना, वाराणसी, सागर, इन्दौर तथा कटनी आदि स्थानोंपर जैन विद्यालय तो स्थापित हो गये थे। पर उनमें व्याकरण, साहित्य और न्याय पढ़ानेके लिए ब्राह्मण विद्वानोंको ही नियुक्त करना पड़ता था। यह परावलम्बनता वर्णीजीको खटकती रहती थी, जिससे वे प्रतिभासम्पन्न छात्रोंको व्याकरण तथा साहित्य आदि पढ़नेकी प्रेरणा देते रहते थे। उसीके फलस्वरूप स्याद्वाद विद्यालयके छात्र बंशीधरजीने व्याकरण, परमानन्दजीने साहित्य, दरबारीलालजो कोठिया तथा महेन्द्र कुमारजीने न्यायदर्शन विषय लिया। सागरमें मैंने भी व्याकरणमध्यमाके बाद साहित्य विषय लिया। ये सब अपने-अपने विषयोंके आचार्य बने । फलस्वरूप वाराणसीको छोड अन्य जगहोंके विद्यालयोंमें इन विषयोंके अध्यापनका दायित्व जैन विद्वानोंने सम्हाल लिया। आद्य व्याकरणाचार्य होनेके साथ ही पं० बंशीधरजी, जैन न्यायके भी अच्छे विद्वान् हैं । सन् १९३० में न्यायतीर्थको परीक्षा देने जब वे कलकत्ता गये थे, तब मैं भी काव्यतीर्थकी परीक्षा देने के लिए उनके साथ कलकत्ता गया था। व्याकरणाचार्य होनेके बाद पं० वंशीधरजी कहों अध्यापनके लिए गये, पर दो-चार माहके बाद ही वे बीना आ गये और वहीं कपड़ेकी दुकान चालू कर लो। अपने बुद्धि-कौशलसे उन्होंने अपने व्यवसायको समुन्नत किया। पण्डितजीका विवाह बीनामें ही शाह मौजीलालजीकी पुत्री लक्ष्मीबाईके साथ हुआ था। मौजीलालजीके सन्तानके रूप में यही एक पुत्री थी, अतः उन्होंने अपने दामाद वंशीधरजीको अपने ही घर रखकर और पुत्रवत् उन्हें समुन्नत बनाया । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्के मंत्री सम्भवतः सोलापुर अधिवेशनमें आप मंत्री चुने गये थे और मैं संयुक्तमंत्री बनाया गया। पण्डितजीने विद्वत्परिषदका कार्यालय अपने पास न रखकर मेरे पास रखा और मुझे मार्गदर्शन करते रहे। कार्य करनेका उत्साह था, जिससे विद्वत्परिषदका प्रभाव बढ़ा और उसके फलस्वरूप जगह-जगह अधिवेशन आमंत्रित होने लगे। विद्वत्परिषदने मथरा, सागर, बीना तथा कटनी आदि स्थानोंपर शिविर और f चाल की। पं० बंशीधरजीका जीवन प्रामाणिक जीवन है। ये घस देकर अपना कार्य सिद्ध नहीं करते। इसका एक प्रसंग मुझे याद है। . जब पूज्य वर्णीजी इटावामें विराजमान थे । तब विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणी की बैठक वहाँ आमंत्रित हुई । बीना होते हए हम चार-छह सदस्य इटावाको चले। झांसीसे इटावा जानेवाली गाड़ी में बैठना कठिन लगा, तब सब फर्स्ट क्लासमें बैठ गये। आगे चलकर चेकरने जुर्मानाके साथ फर्स्ट क्लासका चार्ज माँगा, जो बहुत था। चेकरने अन्तमें कहा कि आप कुछ रुपये दे दें, मैं रसीद नहीं दूंगा। आप लोग आरामसे चले जावें । पण्डितजीने चेकरसे कहा कि आप रसीद दोजिये और पूरा पैसा लीजिये । रसीद लेकर पण्डितजीने पूरा रुपया अपनी जेबसे दिया । हमें लगा कि पण्डितजीने व्यर्थ में बहत रुपया दे दिया। पर प्रामाणिकता भी तो कोई महत्त्व रखती है। एक बार कटनीमें विद्वद्गोष्ठी थी। सागरसे कुछ लोग गये थे। सागरमें म्युनिसिपल चुंगी रहनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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