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________________ सोरई : पूज्य पिताजीकी जन्मभूमि • श्री विनीत कोठिया, बीना सोरई ( ललितपुर ), उत्तरप्रदेशके मड़ावरा-मदनपुर मार्गके बीच बम्हौरी ग्रामसे ३ किलोमीटर दूर स्थित है । इस स्थानका नाम “सोरई" कैसे रखा गया, इसका ज्ञान मुझे नहीं है, लेकिन सुननेमें आया है कि इप स्थानपर स्वर्ण भण्डार है । अतः स्वर्णमयी नगरी होनेसे इसका नाम “सोंरई' रखा गया। इस स्थानकी महत्ता मेरे लिए इसलिए है कि यह मेरे पूज्य पिताजीको जन्मभूमि है। मुझे उस समय अत्यन्त प्रसन्नता हई जब परम आदरणीय पं० दरबारीलालजी कोठियाने मुझे एवं आदरणीय भैयाजी पण्डित दुलीचन्दजी, सोरई वालोंको सोरई जानेका आदेश दिया। तथा उन्होंने हमलोगोंको कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य दिये, जिन्हें हमें सोरई जाकर पूर्ण करना थे। पूज्य पिताजीके “अभिनन्दन-ग्रन्थ'' के लिए उनकी जन्मभूमिके सन्दर्भ सामग्री जुटानेका काम हमें सौंपा गया था। हमें कुछ जानकारी एकत्रित करनी थी जैसे कि इस समय वहाँकी स्थिति, वहाँके जैन मन्दिरोंके बारेमें जानकारी तथा उनके फोटोग्राफ इत्यादि । इन सबमें प्रमुख था वहाँके एक प्राचीन जैन मंदिर, उस मंदिरके शिलालेखकी पूरी इवारत तथा उस शिलालेखका एक फोटोग्राफ भी। इस मंदिरजीके बारेमें जानकारी एकत्रित करनेकी आवश्यकता इसलिए भी थी, क्योंकि पूज्य पिताजीने अपनी शिक्षा यहींसे प्रारम्भ की थी। सोरई :यात्रा-विशेष मैं जब आदरणीय भैयाजीके साथ सोरई-ग्रामके लिए रवाना हुआ तो अपने आपमें बहुत प्रसन्न था, क्योंकि पूज्य पिताजीको जन्मभूमिके दर्शन करनेका मुझे सौभाग्य मिल रहा था। इससे पहले मैं वहाँ गया अवश्य था। लेकिन बहुत पहले, समय गुजरने के साथ-साथ वहाँको याद भी धुंधली पड़ चुकी थी। जुलाईका महीना होनेके कारण मौसम हमारे अनुकूल नहीं था, लेकिन हमलोगोंको वहाँकी जानकारी जुटाना है , यह सोचकर हमलोग रवाना हो गये । ___ हमलोगोंने बस द्वारा सोंरईमें प्रवेश किया । आदरणीय भैयाजीने मुझे बताया कि “बहुत पहले ये बसें इत्यादि नहीं चला करती थीं । सभीलोग यहाँसे मड़ावरा तक पैदल जाया करते थे, और वहाँसे अन्यत्र जानेको बस मिलती थीं । कभी-कभी तो ललितपुर तक पैदल जाना पड़ता था। लेकिन आजकल कई साधन मौजूद हैं, सोरईसे बीना, सागर, मड़ावरा और ललितपुरको जोड़ने वाली पक्की सडकें हैं और बसें भी सब जगहको जानेके लिए मिल जाती हैं।" आदरणीय भैयाजी राहमें चलते, मिलनेवाली सभी प्रमुख जगहोंको मौखिक जानकारी हमें देते रहे । उन्होंने अपने जीवनके लगभग ४० वर्ष यहाँ व्यतीत किये थे। तबसे लेकर आजतक शनैः-शनैः वहाँ काफी परिवर्तन हो चुके थे, अतः वे पहलेकी स्थिति और वर्तमान स्थितिका तुलनात्मक वर्णन कर रहे थे। पहले हम लोग घर पहँचे, जहाँ वर्तमानमें आद० भैयाजीके छोटे भाई श्री फलचन्द्रजी रहते हैं। उन्होंने इस घरके बारेमें भी बताया कि किस तरह संघर्षमयी जीवन बिताते हए इस घरका निर्माण कराया गया था। उन्होंने कुछ ऐसे स्थानों के बारेमें भी बताया जहाँ पहले एकदम खुला मैदान था। आज वहाँ मकानोंने अपना डेरा जमा लिया है। उनके कथनानुसार “जहाँ बाजार लगता है वहाँ पहले पर्याप्त जगह थी लेकिन आज मकानोंकी भीड़ने उस स्थानको तंग कर दिया है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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