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(२) जैनेन्द्र व्याकरण
ऊपर बताया जा चुका है कि पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा लिखित जैनेन्द्र व्याकरण परम्परा का प्राचीनतम नियमित व्याकरण है। जैन परम्परा में जैनेन्द्र व्याकरण की प्रतिष्ठा इस पर लिखी गई टीका सम्पत्ति और स्वयं इस व्याकरण का अपना स्वरूप-सब मिलाकर जैनेन्द्र व्याकरण को ऐसा रूप प्रदान कर देते हैं जो किसी सम्प्रदायप्रवर्तक वैयाकरण द्वारा लिखित व्याकरण को प्राप्त होना चाहिए । जैन परम्परा में जैनेन्द्र व्याकरण की महती प्रतिष्ठा निम्नलिखित लोकप्रिय श्लोक से स्पष्ट हो जाती है : “सर्वव्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपाद: स्वयम् ।" जैनेन्द्र व्याकरण का महत्व इसी बात से स्पष्ट है कि बोपदेव ने जिन प्राचीन आठ वैयाकरणों का उल्लेख किया है उनसे जैनेन्द्र का नाम भी है
"इन्द्रश्चंद्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा: जपन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ।।" जैनेन्द्र व्याकरण के सम्बन्ध में जैन परम्परा में यह विश्वास प्रचलित है कि इसकी रचना स्वयं महावीर स्वामी ने की थी। यह विश्वास सम्भवतः "जैनेन्द्र' इस नाम के प्रति श्रद्धातिरेक से प्रेरित है। वास्तव में इसकी रचना महावीर ने नहीं अपितु उनसे सहस्राब्दी से भी अधिक बाद में हुए आचार्य देवनन्दी ने की थी जिनका नामा: जिनेन्द्रबुद्धि है तथा जैन परम्परा उन्हें उनके उभट पाण्डित्य के कारण पुज्यपाद भी कहती है। पूज्यपाद, देवनदी और जिनेन्द्र बुति ---ये तीनों नाम एक ही जैन आचार्य के हैं, इसका पोषक एक श्लोक श्रवणबेलगोल के शिलालेख में प्राप्त होता है ।
“यो देवनन्दी प्रथमामिधानं बुद्धया महात्मा स जिनेन्दबुद्धिः ।
श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत पूजित पादयुगं यदीयम् ॥" इन्हें लोकप्रियतावश “देव" और "नन्दी" इन संक्षिप्त नामों से भी स्मरण किया जाता रहा है। यहां यह ज्ञातव्य है कि ये जिनेन्द्रबुद्धि उस बौद्ध आचार्य जिनेन्द्र बुद्धि से पृथक् हैं जिन्होंने ८ वीं सदी ई० में काशिकावृत्ति पर न्यास की रचना की थी।
आचार्य पूज्यपाद के परिचय के विषय में कुछ सामग्री प्राप्त होती है। कर्नाटक प्रांत के अनेक शिलालेखों में इनका सादर स्मरण किया गया है। इससे विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि वे सम्भवतः कनाटक प्रांत के थे। चन्द्रव्य नामक एक कर्नाटक कवि ने कन्नड भाषा में पज्यपाद का परिचय देते हुए कहा है कि इनके पिता माधव भट्ट और माता श्रीदेवी दोनों प्रारम्भ में वैदिक मतानुयायी थे। बाद में दोनों ने जैन मत स्वीकार कर लिया। पूज्यपाद ने जब एक दिन किसी उद्यान में सांप के मुंह में पड़े मेंढक को देखा तो इन्हें वैराग्य हो गया। बाद में ज्ञान प्राप्ति के बाद इन्हें जिनके समान कामहन्ता माना गया---'जिनवद् बभूव यदनङः गचापहृत जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधु वर्णितः ।"२
वर्धमान ने इन्हें "दिग्वस्त्र' अर्थात् दिगम्बर जन कहा है"शालातुरीय शकटाङ्गजचन्द्रगोमि-दिग्वस्त्र-भर्तृहरि-वामन-भोजमुख्याः ।"
आचार्य पूज्यपाद का काल छठी शताब्दी ई० माना जाता है। अनेक प्रमाणों के आधार पर अब उनका यह काल प्रायः सर्वसम्मत सा हो गया है । आचार्य ने अपने व्याकरण में सिद्धसेन दिवाकर के मत को उद्धृत किया है। इससे सिद्ध होता है कि पज्यपाद का आविर्भाव सिद्धसेन के बाद हुआ। सिद्धसेन दिवाकर का समय ५ वीं सदी ई० माना जाता है। ऊपर बता आये हैं कि क्षपणक ही सिद्धसेन दिवाकर माने जाते हैं। यदि यह मान्यता प्रामाणिक है तो भी सिद्धसेन चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक होने के कारण उसके समकालीन अर्थात् ५वीं सदी ई० के ही सिद्ध होते हैं। सिद्धसेन से परवर्ती होने के कारण पूज्यपाद छठी शताब्दी ई० के माने जा सकते हैं जिसका पोषक प्रमाण निम्नलिखित हैं। जैनेन्द्र व्याकरण में किसी महेन्द्र द्वारा मथुरा की विजय का संकेत है। भतकाल के लिए लङ का प्रयोग अनतिदूर भूत के लिए, यहां तक कि प्रयोक्ता के दर्शन विषय भूतकाल के लिए होता है। इस आधार
१. मीमांसक यु०, संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग १.५० ४१३. २. श्रवणबेलगोल का शिलालेख। ३. गणरत्नमहोदधि। ४. वेतेः सिद्धसेनस्य, जै० व्या० ५, १, ७. ५. उपाध्याय, बलदेव, संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, प.५७८. ६. अरुणन्महेन्द्रो मधुराम्, जै० व्या० २,२,६२. ७. “परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्तुदर्शनविषये ?"
महाभाष्य ३.२, ११ में वानिक
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्प
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