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यहां प्रथम भजनफल 2 को छोड़कर अन्य भजनफल बाजू के स्तम्भ में एक पंक्ति में लिख लिये गये हैं। अब हमको एक संख्या ऐसी चुननी है, जिसको यदि अन्तिम शेष एक द्वारा गुणा करें और फिर 7 जोड़ें, तो योगफल अन्तिम भाजक एक के द्वारा पूर्णतः भाजन के योग्य हो। माना, वह संख्या 1 चुनी ताकि 1x1+7=1x8 इस चुनी हुई संख्या एक को शृंखला के अन्तिम अंक के नीचे लिखते हैं। फिर इस चुनी हुई संख्या के नीचे, चुनी हुई संख्या की सहायता से उपयुक्त भाग में प्राप्त भजनफल लिखा जाता है । इस प्रकार प्रथम स्तम्भ के अंकों की पूर्ण शृंखला प्राप्त हो जाती है। अब श्रृंखला के नीचे से उप अन्तिम अंक अर्थात् एक को उसके ऊपर के अंक 4 द्वारा गणा करते हैं और गुणनफल में एक के नीचे की संख्या 8 को जोड़ते हैं। इस प्रकार प्राप्त परिणामी 1x4+8-12 को दूसरे स्तम्भ में इस प्रकार लिखते हैं कि वह प्रथम स्तम्भ के अंक 4 के संवादी स्थान में हो। इसके बाद इस 12 को प्रथम स्तम्भ में 4 के ऊपर के अंक एक द्वारा गणा करके 4 के नीचे के अंक को जोड़ते हैं। इस प्रकार प्राप्त परिणामी 12x1+1=13 को दूसरे स्तम्भ मे 12 के ऊपर लिखते हैं। इसी प्रकार क्रिया जारी रखने से हमको 38 और 51 भी प्राप्त होते हैं जो क्रमश: 2 और 1 के संवादी स्थान पर रखे जाते हैं। इस 51 में भी 23 द्वारा भाग दिया जाता है, शष 5 बचता है। यही 5 एक ढेरी में केलों की अभीष्ट संख्या है। स्तम्भ इस प्रकार है
1 - 51 2 - 38 1 - 13
इस प्रकार x-5 या 5+23m हुआ। समीकरण में x का मान रखकर -14 प्राप्त हो जाता है ।
निष्कर्ष-उपयुक्त विबेचनोपरान्त यह स्पष्टत: कहा जा सकता है कि जैन साहित्य में निहित बीजगणित अपनी महत्ता को समाहित किए हुए है। जैनाचार्यों ने बीजगणित के प्रतिपादन पर प्रत्येक दृष्टिकोण से गहनतम विचारात्मक परिवेशों को प्रस्तुत करके उसकी समृद्धि का महत्त्वांकन किया है । जैनाचार्यों के स्तुत्य प्रयासों से बीजगणित की प्राचीनता तो आती ही है, साथ ही उसकी, आधुनिकता भी हमको सुस्पष्टत: ज्ञात हो जाती है । अन्तत: कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने बीजगणित पर विस्तृत विचार प्रस्तुत करके बीज गणित की स्वरूपता, सैद्धान्तिकता एवं व्यावहारिकता रूपी त्रिवेणी को प्रवाहित किया है।
भारतीय गणित की मौलिकता एवं प्राचीनता एन्साइक्लोपीडिया आफ ब्रिटानिका (जिल्द 17, पृ० 626, नवम संस्करण) में लिखा है "इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे (अंग्रेजी से) वर्तमान अंक-क्रम की उत्पत्ति भारत से है। सम्भवत: खगोल संबंधी उन सारणियों के साथ, जिनको एक भारतीय राजदूत 773 ई० में बगदाद में लाया था, इन अंकों का प्रवेश अरब में हआ। फिर ईसवी सन 9वीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में प्रसिद्ध अबू जफर मोहम्मद अल खाहिज्मी ने अरबी में उक्त अंक-क्रम का विवेचन किया और उसी समय से अरब में उसका प्रचार बढ़ने लगा। योरोप में शुन्य-सहित सम्पूर्ण अंक-क्रम ईसवी सन 12वीं शताब्दी में अरबी से लिया गया और इस क्रम से बना हुआ अंकगणित 'अल्गोरिटमस' नाम से प्रसिद्ध हुआ।
अलबरूनी ने भी अपनी भारत-यात्रा' में यहां के गणित एवं ज्योतिष की मुक्तकंठ से सराहना की है। उसके अनुसार, जिन भिन्न-भिन्न जातियों से मेरा सम्पर्क रहा, उन सबकी भाषाओं में संख्यासूचक चक्रों के नामों (इकाई, दहाई, सैकड़ा आदि) का मैंने अध्ययन किया है, जिससे मालूम हुआ है कोई भी जाति एक हजार से आगे नहीं जाती। अरब लोग भी एक हजार तक (नाम) जानते हैं। हिन्दू अपने संख्या-सूचक क्रम को अठारहवें स्थान तक ले जाते हैं, जिसको परार्द्ध' कहते हैं ।
[डॉ. मुकुटबिहारी लाल के शोध-प्रबन्ध गणित एवं ज्योतिष
के विकास में जैनाचार्यों का योगदान' के आधार पर].
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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