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________________ प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में बीजगणित डॉ० मुकुटबिहारी लाल अग्रवाल 'स्थानांग-सूत्र'। (300 ई० पू० लगभग) में अज्ञात राशि के लिए 'यावत्-तावत्' शब्द प्रयोग किया है। ‘उत्तराध्ययनसूत्र (लगभग 300 ई० पू०) में ज्ञात अथवा अज्ञात राशि की घात के लिए प्राचीनतम हिन्दू नाम उपलब्ध होते हैं । इसमें दूसरी घात (अर्थात् ) के लिए 'वर्ग' तीसरी घात (अर्थात् as) के लिए 'धन', चौथी घात (अर्थात् a') के लिए 'वर्ग-वर्ग' [जिसका अर्थ है वर्ग का वर्ग अर्थात् (a2)], छठी घात (अर्थात् a) के लिए 'घन वर्ग' [अर्थात् (a)] तथा बारहवीं घात (अर्थात् al) के लिए 'घन-वर्ग-वर्ग' [अर्थात् {(a)}] शब्द प्रयोग किये गये हैं। इन शब्दों की रचना में सिद्धान्त (am) = amxm का प्रयोग किया गया है । इस ग्रन्य में तीन से अधिक विषम घात के लिए कोई शब्द नहीं मिलता । परन्तु बाद के ग्रन्थों में पांचवीं घात (अर्थात् a) के लिए 'वर्ग घम घात' (अर्थात् a.xas), सातवीं घात (अर्थात् ') के लिए 'वर्ग-वर्ग घन घात' (अर्थात् a.xaxas) आदि शब्द मिलते हैं। इसमें घात-सिद्धान्त (अर्थात् anxa = am+n) का प्रयोग है। इससे स्पष्ट है कि उस समय निम्न घात सिद्धान्त ज्ञात थे । (1) (am) =amxm (2) axa=am+m 'अनुयोगद्वारसूत्र' में, जो ईसा-पूर्व में लिखा हुआ ग्रन्थ है, उच्च घातों के लिए, चाहे वे पूर्णांक हों अथवा भिन्नात्मक, विशेष शब्द मिलते हैं । इस ग्रन्थ में किसी राशि a के प्रथम वर्ग का आशय से है, a के द्वितीय वर्ग से आशय (ar)=a' और a के तृतीय वर्ग का आशय [(a)"] ==as से है। इसी प्रकार और आगे की घातों के लिए है। समान्यत: a के वें वर्ग का आशय alxaxp. . . . . . . . .॥ बार =an है। इसी प्रकार के प्रथम वर्गमूल का आशय है। a के द्वितीय वर्गमूल का आशय Vira)= है। सामान्यत: a का n वा वर्गमूल al" है । चिह्नों के नियम-गणितसारसंग्रह' में घन और ऋण-चिह्नों के विषय में नियम इस प्रकार मिलता है।" : "घनात्मक और ऋणात्मक राशि के जोड़ने पर प्राप्त फल इनका अन्तर होता है। परन्तु दो ऋणात्मक अथवा दो घनात्मक राशियों का योग क्रमशः ऋणात्मक और घनात्मक राशि होता है।" घटाने के समय चिह्नों के बारे में गणितसारसंग्रह' में नियम इस प्रकार हैं-गकिमी दी हई संख्या में से घनात्मक राशि घटाने के लिए उसे ऋणात्मक कर देते हैं, और ऋणात्मक राशि घटाने के लिए उसे घनात्मक कर देते हैं। इसके बाद दोनों को जोड़ लेते हैं।" गुणा करते समय चिह्नों के बारे में इस ग्रन्थ में नियम इस प्रकार है-'दो ऋणात्मक अथवा दो घनात्मक राशियां, एकदूसरे से गुणित करने पर, घनात्मक राशि उत्पन्न करती हैं, परन्तु दो राशियाँ, जिनमें एक घनात्मक तथा दूसरी ऋणात्मक हो, एकदूसरे से गुणा करने पर ऋणात्मक राशि उत्पन्न करती हैं।" 1. स्थानांग सूत्र , सूत्र 747 2 उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय 30, सूत्र 10-11 3. अनुयोगदारसव, सूत्र 142 4. गणितसारसंग्रह, अध्याय 1, गाथा 50-51 5. बही, अध्याय 1, गाथा 0 (ii) 6. वही, अध्याय 1, गाथा 51 7. वही, अध्याय 1, गाथा 50 (i) जैन प्राच्य विद्याएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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