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सृष्टि की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? विज्ञान के क्षेत्र में इस सम्बन्ध में मुख्यतः दो सिद्धान्त हैं-(1) महान् आकस्मिक विस्फोट का सिद्धान्त (Big Bang Theory) और (2) सतत उत्पत्ति का सिद्धान्त (Continuous Creation Theory) ।
महान आकस्मिक विस्फोट का सिद्धान्त, जिसे सन् 1922 में रूसी वैज्ञानिक डॉ० फंडमैन ने जन्म दिया, हिन्दुओं को कल्पना से मेल खाता है । इसके अनुसार ब्रह्माण्ड का जन्म हिरण्यगर्भ (सोने का अण्डे) से हुआ। सोना धातुओं में सबसे भारी है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिस पदार्थ से इस विश्व की रचना हुई है बह बहुत भारी था। उसका घनत्व सबसे अधिक था। फैलते-फैलते यही अण्डा विश्वरूप हो गया।
अमेरिका के प्रोफेसर चन्द्रशेखर ने गणित के आधार पर बतलाया है कि विश्व-रचना के प्रारम्भ में पदार्थ का घनत्व लगभग 160 टन प्रति घनइंच था। जबकि एक घनईच सोने का तोल केवल पांच छटांक होता है। दूसरे शब्दों में वह पदार्थ अत्यन्त भारी था।
आजकल के वैज्ञानिक इस प्रश्न पर दो समुदायों में बंटे हुए हैं -एक वे हैं जिनका मत है कि यह ब्रह्माण्ड अनादि काल से अपरिवर्तित रूप में चला आ रहा है और दूसरे वे हैं जो यह विश्वास करते हैं कि आज से अनुमानत: 10 या 20 अरब वर्ष पूर्व एक महान् आकस्मिक विस्फोट के द्वारा इस विश्व का जन्म हुआ । हाइड्रोजन गैस का एक बहुत बड़ा धधकता हुआ बबूला अकस्मात् फट गया और उसका सारा पदार्थ चारों दिशाओं में दूर-दूर तक छिटक पड़ा और आज भी वह पदार्थ हम से दूर जाता हुआ दिखाई दे रहा है। ब्रह्माण्ड की सीमा पर जो क्वैसर नाम के तारक पिण्डों की खोज हुई है जो सूर्य से भी 10 करोड़ गुने अधिक चमकीले हैं, वे हमसे इतनी तेजी से दूर भागे जा रहे हैं कि इनसे आकस्मिक विस्फोट के सिद्धान्त की पुष्टि होती है (भागने की गति 70,000 से 1,50,000 मील प्रति सैकिण्ड है। किन्तु भागने की यह क्रिया भी एक दिन समाप्त हो जायेगी और यह सारा पदार्थ पुनः पीछे की ओर गिर कर एक स्थान पर एकत्रित हो जायेगा और फिर विस्फोट की पुनरावृत्ति होगी। इस सम्पूर्ण क्रिया में 80 अरब वर्ष लगेंगे और इस प्रकार के विस्फोट अनन्त काल तक होते रहेंगे। जैनाचार्यों ने इसे परिणमन की क्रिया कहा है। इसमें षट्गणी हानि और वृद्धि होती रहती है।
दुसरा प्रमुख सिद्धान्त सतत उत्पत्ति का सिद्धान्त है, जिसे अपरिवर्तनशील अवस्था का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इसके अनुसार यह ब्रह्माण्ड एक घास के खेत के समान है जहां पुराने घास के तिनके मरते रहते हैं और उनके स्थान पर नये तिनके जन्म लेते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि घास के खेत की आकृति सदा एक-सी बनी रहती है । यह सिद्धान्त जैन धर्म के सिद्धान्त से अधिक मेल खाता है । जिसके अनुसार इस जगत् का न तो कोई निर्माण करने वाला है और न किसी काल-विशेष में इसका जन्म हुआ । यह अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है और अनन्त काल तक ऐसा ही चलता रहेगा। हमारी मान्यता गीता की उस मान्यता के अनुकूल है, जिसमें कहा गया है
"न कर्तुत्वं न कर्माणि, न लोकस्य सृजति प्रभुः ।"
एम. आई०टी० (अमरीका) के डॉ० फिलिप नोरीसन इस सम्बन्ध में कहते हैं - "ज्योतिषियों ने जो अब तक परीक्षण किये हैं उनके आधार पर यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि खगोल-उत्पत्ति के भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों में से कौन-सा सिद्धान्त सही है। इस समय इनमें से कोई सा भी सिद्धान्त सम्पूर्ण रूप से वस्तुस्थिति का वर्णन नहीं करता।"
इस सम्बन्ध में हम संसार के महान वैज्ञानिक प्रोफेसर आइन्सटाइन का सिद्धान्त ऊपर वर्णन कर चुके हैं, जिसके अनुसार यह संसार अनादि एवं अनन्त सिद्ध होता है।
जगत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लेख का निष्कर्ष यह निकलता है कि महान आकस्मिक विस्फोट-सिद्धान्त के अनुसार इस ब्रह्माण्ड का आरम्भ एक ऐसे विस्फोट के रूप में हुआ, जैसा आतिशबाजी के अनार में होता है । अनार का विस्फोट तो केवल एक ही दिशा में होता हैं । यह विस्फोट सब दिशाओं में हुआ और जिस प्रकार विस्फोट के पदार्थ पुनः उसी विन्दु की ओर गिर पड़ते हैं, इस विस्फोट में भी ऐसा ही होगा। सारा ब्रह्माण्ड पुनः घण्डे के रूप में संकुचित हो जायेगा । पुनः विस्फोट होगा और इस प्रकार की पुनरावृत्ति होती रहेगी। इस सिद्धान्त के अनुसार भी ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति शून्य में से नहीं हुई। पदार्थ का रूप चाहे जो रहा हो, इसका अस्तित्व अनादि-अनन्त है।
दूसरा सिद्धान्त सतत उत्पत्ति का है। इसकी तो यह मान्यता है ही कि ब्रह्माण्ड-रूपी चमन अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है और चलता रहेगा। इस सिद्धान्त को आइन्सटाइन का आशीर्वाद भी प्राप्त है । अतएव जगत्-उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का सिद्धान्त सोलहों आने पूरा उतरता है।
इस लेख की समाप्ति हम यह कह कर रहे हैं कि 343 धनरज्जु के इस लोक में इलेक्ट्रोन, प्रोटोन और न्यट्रोन आदि मूलभूत कणों की संख्या 107 से लेकर 105 तक है, अर्थात् 1 का अंक लिखकर 72 या 75 बिन्दु लगाने से यह संख्या बनेगी।
अणोरणीयान् महतो महीयान् !
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रत्य
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