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________________ से पवन या श्वास फिर ऊर्ध्वगामी होता है। वस्तुतः श्रवण गम्य वाक् का मूल श्वास के उत्थान में है। वह (श्वास) ऊर्ध्वगमन करता हुआ ध्वनि-यन्त्र या स्वर-यन्त्र ( Vocal Chord ) से टकराता है । स्वर - यन्त्र का श्रावयविक स्वरूप श्रौर प्रक्रिया । गले के भीतर भोजन और जल की नली के समकक्ष श्वास की नली का वह भाग जो अभिकाकल - स्वरयन्त्रावरण (Epiglotis) से कुछ नीचे है, ध्वनि-यन्त्र या स्वर-यन्त्र कहा जाता है। गले के बाहर की ओर कण्ठमणि या घांटी के रूप में जो उभरा हुआ, दुबले-पतले मनुष्यों के कुछ बाहर निकला हुआ कठोर भाग है, वही भीतर स्वर-यन्त्र का स्थान है। श्वासनलिका का यह (स्वर यन्त्र-गत) भाग कुछ मोटा होता है। प्रकृति का कुछ ऐसा ही प्रभाव है, जहां जो चाहिए, उसे वह सम्पादित कर देती है । स्वर-यन्त्र या ध्वनि-यन्त्र में सूक्ष्म झिल्ली के बने दो लचकदार पर्दे होते हैं । उन्हें स्वर-तन्त्री या स्वर-रज्जू कहा जाता है । स्वर-तन्त्रियों के मध्यवर्ती खुले भाग को स्वर यन्त्र- मुख या काकल ( Glottis ) कहते है जब हम सांस लेते हैं या बोलते हैं, तब वायु इसी से भीतर-बाहर आतीजाती है । मानव इन स्वर-तन्त्रियों के सहारे अनेक प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करता है । तात्पर्य यह है, श्वास या पवन के संस्पर्श, या या संघर्ष से स्वर-तन्त्रियों या स्वर-यन्त्र के इन लचीले दोनों पर्दों में कई प्रकार की स्थितियां बनती हैं। कभी ये पर्दे एक-दूसरे के समीप आते हैं, कभी दूर होते हैं । सामीप्य और दूरी में भी तरतमता रहती है— कब एक पर्दा कितना तना, कितना सिकुड़ा, दूसरा कितना फैला, किता सटा इत्यादि । इस प्रकार फैलाव, तनाव, कम्पन आदि को विविधता ध्वनियों के अनेक रूपों में प्रस्फुटित होती है । जैसे, वीणा के भिन्न-भिन्न तार ज्यों ज्यों अंगुली द्वारा संस्पृष्ट और आहत होते जाते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वर उत्पन्न करते जाते हैं । वही बात स्वर यन्त्र के साथ है, जो एक व्यवस्थित और नियमित क्रम लिए हुए है । स्वर-यन्त्र से निःसृत ध्वनियां मुख-विवर में आकर अपने-अपने स्वरूप के अनुकूल मुखगत उच्चारण अवयव - कण्ठ, तालु, मूर्द्धान्तष्ठनामिका आदि को संस्पृष्ट करती हुई मुख से बाहर निःसृत होती हैं वायु से टकराती हैं। जैसा जैसा उनका सूक्ष्म स्वरूप होता है, वे वायु में वैसे प्रकम्पन या तरंगें पैदा करती हैं। वे तरंगें ध्वनि का संवहन करती हुई उन्हें कर्णगोचर बनाती हैं। शब्द के सूक्ष्मतम प्रभौतिक कलेवर की सृष्टि ध्वनि की अभिव्यक्ति का व्यापार मूलाधार से प्रारम्भ होकर गुख-वियर से निःसृत होने तक किन-किन परिणतियों में से गुजरता है, यह बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है। परा पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी के विवेचन के अन्तर्गत जो बतलाया गया है, उसका निष्कर्ष यह है कि जब अर्थ-विशेष का संस्फुरण या भावोद्वेलन व्यक्त होने के लिए शब्द की माँग करता है, अर्थ की बोधकता के अनुरूप उस शब्द का सूक्ष्मतम अभौतिक कलेवर तभी बन जाता है, जिसकी पारिभाषिक संज्ञा 'परा' वाक् अर्थात् वह बहुत दूरवर्ती वाणी या शब्द, जो हमारी पकड़ के बाहर है - तदनन्तर नाभि-देश के संयोग या संस्पर्श द्वारा जो शब्द उत्पन्न होता है, वह भी पहले से कुछ कम सही, सूक्ष्मावस्था में ही रहता है। इस पवनलिष्ट सूक्ष्म वाक् का और विकास होता है सूक्ष्म-अमूर्त शब्द मूर्तस्व अधिगत करने की ओर बढ़ता है। सूक्ष्म शब्द का थोड़ा-सा स्थान स्थूल शब्द ले लेता है । पर जैसा कि कहा गया है वह व्यक्त, स्फुट या इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होता । यह सूक्ष्म और स्थूल वाणी का मध्यवर्ती रूप है, जहां से सूक्ष्मता के घटने और स्थूलता के बढ़ने का अभियान आरम्भ होता है । इसीलिए सम्भवत: इसे 'मध्यमा' कहा गया हो । 'मध्यमा' का उत्तरवर्ती रूप 'वैखरी" है, जो मानव के व्यवहार जगत् का अंग है । 'वैखरी' के प्रस्फुटित होने का अर्थ है - शब्द द्वारा एक आकार की प्राप्ति । बहुत जटिल से प्रतीत होने वाले उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सारांश यह है कि शब्दमात्र के प्रस्फुटित या प्रकट होने में मुख्य क्रियाशील तत्त्व पवन या श्वास है। मूलाधार में उत्पन्न सूक्ष्मतम से प्रारम्भ होकर नाभिवेश में उद्भूत सूक्ष्मतर में से गुजरते हुए हृदय देश में प्रकटित — व्यक्त-अव्यक्त सूक्ष्म स्वरूप को प्राप्त शब्द के श्वास- संश्लिष्ट होने का ही सम्भवतः यह प्रभाव होना चाहिए कि श्वास विभिन्न स्थिति, रूप, क्रम एवं परिमाण में स्वर-यन्त्र के पर्दों का संस्पर्श करता हुआ उनके विविधतया तनने, फैलने, सिकुड़ने, मिलने अभिजित ईम्मिलित आदि अवस्थाएं प्राप्त करने, फलतः तदनुरूप स्वर, व्यंजन पाद-गठन अक्षर परिस्फुट करने का हेतु बनता है। " वाणी के प्रादुर्भाव का जो क्रम प्रतिपादित हुआ है, वास्तव में बड़ा महत्त्वपूर्ण है और वैज्ञानिक सरणि लिये हुए है । वागुत्पत्ति जैसे विषय पर भी भारतीय विद्वानों ने कितनी गहरी दुबकियां लीं इसका यह परिचायक है। विशेषेण रवं राति रा + क + ण् + ङीप् प्रर्थात् जो विशेष रूप से प्राकाश को रव युक्त करे - निनादित करे । जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १. Jain Education International For Private & Personal Use Only १५३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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