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भाषाओं के अध्यग्रन की ओर उस समय यूरोप में कितनी उन्मुखता हो चली थी, यह इसी से स्पष्ट है कि सुप्रसिद्ध दार्शनिक लिबनिज ने भी इस ओर ध्यान दिया। शासक वर्ग भी इससे प्रभावित हुआ । फलत: पीटर महान् ने तुलनात्मक शब्दों का संग्रह करवाया। रूस की महारानी कैथरिन द्वितीय ने भी पी० एस० पल्लस (१७४१-१८११) को एक तुलनात्मक शब्दावली तैयार करने की आज्ञा दी। फलतः उन्होंने यूरोप और एशिया ; दोनों महाद्वीपों की अनेक भाषाओं के २८५ तुलनात्मक शब्द संकलित किये । इसके दूसरे संस्करण में कुछ और विकास हुआ । लगभग अस्सी भाषाओं के सादृश्य मूलक शब्दों का उसमें और समावेश किया गया।
पश्चिम में भाषा-तत्व पर हुए अध्ययन-अनुशीलन का यह संक्षित विवरण है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भाषा-वैज्ञानिकों की अगली पीढ़ी के लिए यह किसी-न-किसी रूप में प्रेरक सिद्ध हुआ। निष्कर्ष
प्राच्य और प्रतीच्य दोनों भू-भागों में भाषा-तत्त्व पर की गयी गवेषणा और विवेचना की पृष्ठ-भूमि प्राप्त थी ही, जिस पर आगे चल कर भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में भाषा के विविध पक्षों को लेते हुए सूक्ष्म तथा गहन अध्ययन-कार्य हुआ और हो रहा है। भाषाविज्ञान इस समय मानविकी अध्ययन के क्षेत्र में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्वतन्त्र विषय के रूप में प्रतिष्ठित है। इस पर काफी गवेषणा और अनुसन्धान हआ है, पर, यह विषय बहत विस्तीर्ण है, जिसकी व्याप्ति सारे विश्व तक है। विश्व की विभिन्न प्राचीन और अर्वाचीन भाषाओं का ज्यों-ज्यों और अधिक तलस्पर्शितापूर्वक वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन-क्रम आगे बढ़ता जायेगा, भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में तो बड़ा काम होगा ही, विश्व के विभिन्न भागों में समय-समय पर प्रादुर्भूत सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक विकास, राजनैतिक व प्रशासनिक परिवर्तन, उतार-चढ़ाव आदि से जुड़े हुए अनेक अव्यक्त तथ्य भी प्रकट होंगे । भाषा-विज्ञान की प्राधुनिक परम्परा
भाषा-विज्ञान शब्द आज जिस अर्थ में प्रचलित है, उस दृष्टि से भाषा के साथ संश्लिष्ट अनेक सूक्ष्म पक्षों का व्यापक और व्यवस्थित अध्ययन लगभग पिछली दो शताब्दियों से हो रहा है । अध्ययन की इस सूक्ष्म विश्लेषण पूर्ण व समीक्षात्मक परम्परा को आरम्भ करने का मुख्य श्रेय यूरोपीय विद्वानों को है, जिन्होंने पाश्चात्य भाषाओं के साथ-साथ प्राच्य भाषाओं का भी उक्त दृष्टिकोण से गहन अध्ययन किया । विशेषतः भारोपीय-भाषाओं के अध्ययन में तो इन विद्वानों ने जो कार्य किया, वह अत्यन्त प्रेरक और उदबोधक है।
पाश्चात्य विद्वानों में निःसन्देह अनुसन्धित्सा की विशेष वृत्ति है। पाश्चात्य मनीषी सर विलियम जॉन्स इसके मूर्त उदाहरण कहे जा सकते हैं। वे (१८वीं शती) कलकत्ता में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे । भारतीय विधि-विधान, न्याय तथा प्रशासन आदि को सूक्ष्मता से जानने की उन्हें जिज्ञासा हुई, ताकि वे भारतीयों को उनकी अपनी परम्पराओं के अनुरूप सही न्याय दे सकें। इसके लिए संस्कृत का अध्ययन परम आवश्यक था। सर विलियम जॉन्स के मन में संस्कृत पढ़ने की उत्कट इच्छा जागृत हुई। उन्होंने संस्कृत के किसी अच्छे विद्वान् की खोज प्रारम्भ की, जो उन्हें पढ़ा सके। बड़ी कठिनाई थी। कोई विद्वान् उन्हें पढ़ाने को तैयार नहीं हो रहा था। उन दिनों ब्राह्मण विद्वानों में यह रूढ़ धारणा थी, किसी विधर्मी को देव-वाणी कैसे पढ़ाई जा सकती है ? बहत प्रयत्न से एक विद्वान् तैयार हुए, पर, उन्होंने कई शर्ते रखीं। जिस कमरे में वे पढ़ायेंगे, उसे प्रतिदिन पढ़ाई से पूर्व गंगा के जल से धोना होगा। उनके लिए पढ़ाते समय पहनने के हेतु रेशमी कपड़ों की व्यवस्था करनी होगी। जॉन्स महोदय भी पढ़ते समय रेशमी वस्त्र धारण करेंगे। भूमि पर बैठकर पढ़ना होगा।
सर विलियम जॉन्स ने यह सब सहर्ष स्वीकार किया। उन दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद की गरिमा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। पर, ज्ञान-प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा के समक्ष उस विदेशी अधिकारी ने किसी भी औपचारिकता को बिलकुल भुला दिया और अपने विद्वान् अध्यापक द्वारा निर्देशित व्यवस्था-क्रम का यथावत् पालन करते हुए पढ़ना आरम्भ कर दिया। जिस लगन, निष्ठा और तन्मयता से सर विलियम जॉन्स ने संस्कृत विद्या का अध्ययन किया, वह विद्यार्थियों के लिए वास्तव में अनकरणीय है। समुद्रों पार का एक व्यक्ति, जिसे संस्कृत का कोई पूर्व संस्कार न था, न जिसके धर्म की वह भाषा थी, ऐसी तड़प और लगन से गम्भीर ज्ञान अजित करने में अपने आप को जोड़ दे, यह कम महत्त्व की बात नहीं थी। सतत अध्यवसाय और लगन के कारण संस्कृत विद्या की अनेक शाखाओं का सर विलियम जॉन्स ने तलस्पर्शी ज्ञान अजित किया। याज्ञवल्क्य आदि स्मृति-ग्रन्थों और मिताक्षरा प्रभति टीका व व्याख्या-साहित्य का भी उन्होंने सांगोपांग पारायण किया ।
भारतीय समाज और विधि-विधानों का तो सर विलियम जॉन्स ने विस्तीर्ण ज्ञान पाया ही, साथ ही एक फलित और हुआ, जिसका भाषा-विज्ञान के इतिहास में उल्लेखनीय स्थान है । सर विलियम जॉन्स ग्रीक, लैटिन, गाथिक आदि पुरानी पाश्चात्य भाषाओं के
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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