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के 'इलेक्ट्रो वैलेन्सी,' 'को-वैलेन्सी' और 'को ऑर्डीनेट को-वैलेन्सी' की धारणा से मिलते-जुलते हैं । जैन-दर्शन के अनुसार विषम गुण वाले परमाणु आपस में संगठित होते हैं। स्निग्ध और रूक्ष गुण वाले परमाणुओं का बन्धन होता है ।' पदार्थ-विज्ञान भी मानता है कि विपरीत चार्ज वाले परमाणुओं का संयोग होता है। (२) जैन-दर्शन की मान्यता है कि समगुण वाले परमाणुओं का भी संगठन हो सकता है यदि उनकी शक्ति की मात्रा विषम हो, अर्थात् उनमें एक की अपेक्षा दूसरे में कम से कम दो इकाई शक्ति अधिक हो (जैसे १:२, २:४, ४:६, इत्यादि)। पदार्थ-विज्ञान भी मानता है कि समान चार्ज वाले परमाणु भी संगठित हो सकते हैं बशर्ते उनका 'स्पिन' भिन्न हो । (३)जैन दर्शन के अनुसार जघन्य गुण या न्यूनतम शक्ति वाले परमाणुओं का संगठन नहीं हो सकता।' आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि निम्नतम स्तर (Ground Level) के परमाणुओं का संगठन नहीं हो सकता है । इससे स्पष्ट है कि जैन पदार्थ-विज्ञान कितनी दूर तक आधुनिक विज्ञान के समान्तर चल सकता है।
अनिश्चयवाद बनाम स्याद्वाद एवं अनेकान्तवाद : (Principle of Uncertainty vs-Syadvada & Anekantavada)
१९वीं शती के विज्ञान के लिए परमार्थ सत्ता के सम्बन्ध में निरपेक्ष रूप से कुछ कहना सम्भव था। परन्तु आधुनिक विज्ञान के लिए ऐसा कुछ कहना सम्भव नहीं हो रहा है; क्योंकि विज्ञान यह अनुभव करने लगा है कि परमार्थ सत्ता का कोई एकान्तिक स्वरूप नहीं है। वह कभी कण (Particale) की भांति कार्य करता है तो कभी लहर या तरंग (wave) की भांति । अतएव अब निरपेक्ष रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि 'पदार्थ परमाणु कण है' और न यह ही कहा जा सकता है कि 'पदार्थ लहर या शक्ति है।' पदार्थ की धारणा में भूत (Matter) और शक्ति (Energy)---दोनों की धारणा निहित हो गई है। इसलिए 'एटम' के स्थान पर 'क्वांटम' शब्द का आविष्कार किया गया है। साथ ही, परमार्थ तत्त्व की स्थिति को जब ठीक-ठीक मापते हैं, तो उसका वेग ठीक से मापा नहीं जा सकता (क्योंकि वह बदल जाता है) और यदि वेग को ठीक से मापते हैं, तो स्थिति ठीक से नहीं मापी जा सकती है (क्योंकि स्थिति बदल जाती है) । यह तथ्य हाईजेनवर्ग (Heisenburg) के 'अनिश्चयता सिद्धान्त' (Principle of Uncertainty) में व्यक्त हुआ है।
जैन दर्शन की पुद्गल की धारणा आधुनिक क्वान्टम पदार्थ-विज्ञान के क्वान्टम, (Quantum) की धारणा से मिलती-जुलती है, क्योंकि इसकी धारणा में भी भूत (Matter) और शक्ति (Energy) दोनों की धारणा निहित है । साथ ही, आज विज्ञान जिस स्थिति में आ पहुंचा है, वह स्याद्वाद और अनेकान्त की स्थिति है। जैन दर्शन भी मानता है कि पदार्थ का स्वरूप एकान्तिक नहीं है। उसके अनन्त गुण धर्म हैं-अनन्तधर्मकं वस्तु । फिर विज्ञान, परमार्थ सत्ता के सम्बन्ध में निरपेक्ष निर्णय नहीं दे पा रहा है कि वह कण है या लहर । उसे कहना पड़ रहा है कि एक दृष्टिकोण से वह कण है; दूसरे दृष्टिकोण से लहर है, या एक प्रसंग में वह कण की भांति कार्य करता है और दूसरे प्रसंग में लहर की भांति । स्याद्वाद का प्रतिपादन भी इसी उद्देश्य से हुआ है। इसके अनुसार प्रत्येक निर्णय सापेक्षत: सत्य है, इसलिए किसी भी वस्तु के विषय में ऐसा ही है न कहकर 'स्यात् ऐसा है'–कहना अधिक समीचीन है । परमतत्त्व के विषय में विज्ञान भी यही कह रहा है कि 'स्यात् यह कण हैं', 'स्यात् यह लहर है'। अतएव अब विज्ञान जैन दर्शन के स्याद्वाद के दर्शन की स्थिति में आ गया है।
प्रतीतिवादी दर्शन (Phenomenalism):
आधुनिक विज्ञान प्रतीतिवादी है । इसके अनुसार हमारा ज्ञान केवल प्रतीति (Phenomena) या जो घटित हो रहा है, उसी का हो सकता है। हम निरपेक्ष सत्ता को नहीं जान सकते हैं। आधुनिक दर्शन मानने लगा है कि निरपेक्ष की धारणा केवल कल्पना (Myth) या रिक्त शब्द है । हम केवल सापेक्ष सत्ताओं को ही जानते हैं । निरपेक्ष सत्ता (Absolute) की धारणा केवल भाषा के गलत प्रयोग से उत्पन्न हो जाती है। जैन-धर्म की प्रवृत्ति भी निरपेक्ष सत्ता विरोधी है। इसके अनुसार निरपेक्ष सत्ता अधिक से अधिक विभिन्न सापेक्ष पहलुओं का योगफल है। यह सापेक्षता के परे जाकर किसी निरपेक्ष सत्ता में विश्वास नहीं करता है।
१. स्निग्ध: रुक्षत्वाद्वन्धः। तत्त्वार्थसूत्र, ५/३३ २. गुण साम्ये सादृशानम् ।
द्वयधिकादिगुणानां तु । बन्धेऽधिको पारिणामिको । तत्त्वार्थसूत्र, ५/३६, ३७, ३८ ३. न जघन्य गुणानाम् । तत्त्वार्थसत्र, ५/३४ ४. जैन धर्म और जीव विज्ञान में समता के लिए देखिए,
Dr. H. P. Verma and Dr. A. P. Jha, Jaina Vision and Genetic Research, 1975, ज्ञानम्, भागलपुर ५. देखिए A.J. Ayer, Language Truth and Logic, 2nd Ed., Victor Gollancz, London, 1946
बन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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