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________________ धर्म कहते हैं ।) अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, अहिंसा और अपरिग्रह ये जैन-दर्शन के चार आधार-स्तंभ हैं। विचार में अनेकान्त, वाणी में स्यात्, आचरण में अहिंसा और जीवन में अपरिग्रह ये जैन-दर्शन के आध्यात्मिक चौखटे के चार कोण हैं । प्रस्तुत सन्दर्भ में हम प्रथमतः यह देखने का प्रयास करेंगे कि- (१) आधुनिक वैज्ञानिक युग की मुख्य प्रवृत्तियां क्या हैं और जनदर्शन कहां तक अनुकूल है ? फिर यह भी देखेंगे कि-(२) आधुनिक युग की शोक-सन्तप्त एवं विनाश पर खड़ी मानवता के लिए यह धर्म दर्शन किस प्रकार उपयोगी हो सकता है ? योगवादी अभिवृति विज्ञान उन्हा दायरे में न आधुनिक विज्ञान और जैन-दर्शन : आधुनिक विज्ञान की प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं(१) अनुभववादी और प्रयोगवादी अभिवृत्ति (Empericism and Experimentalism) आधुनिक युग एवं विज्ञान की प्रवृत्ति अनुभववादी है । विज्ञान उन्हीं चीजों को सत्य और प्रामाणिक मानने को तैयार है जो निरीक्षण और प्रयोग की कसौटी पर खरी उतरती हैं। जो निरीक्षण और प्रयोग के दायरे में न आता हो और विवेक सम्मत न हो उसे विज्ञान मानने को राजी नहीं है । आधुनिक युग में विश्वास (Dogma) और आप्तोपदेश (Authority) का कोई स्थान और महत्त्व नहीं है । विज्ञान ने मनुष्यों को इनके विरुद्ध विद्रोह करना सिखाया है क्योंकि मान लेने वाला कभी जान नहीं सकता है । जानने की प्रक्रिया सन्देह और जिज्ञासा की प्रक्रिया है। जिसमें विश्वास और अविश्वास दोनों का निवारण आवश्यक है।' विज्ञान को वही स्वीकार्य है जो प्रयोग और जांच के योग्य हो । प्रामाणीकरण की क्षमता अर्थवत्ता की पहली शर्त है। वैज्ञानिक जागरण के प्रारम्भिक काल में ही रेने डेकार्ट ( Rene Descartes) ने यह घोषणा की थी कि हमें किसी वस्तु को विश्वास के आधार पर आंख मूंद कर नहीं मान लेना चाहिए, बल्कि उसके सम्बन्ध में सन्देह और जिज्ञासा करनी चाहिए और जब तक उसके सम्बन्ध में स्पष्ट (Clear) और परिस्पष्ट (Distinct) ज्ञान न हो जाय उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। आधुनिक युग में प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक विटगेन्सटाइन (Wittgenstein)ने यह घोषणा की कि वैज्ञानिक भाषा को छोड़ कर अन्य किसी रूपमें सार्थक एवं बोध गम्य रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। जो भी विज्ञान सम्मत नहीं है, वह निरर्थक है। जैन-दर्शन में भी विज्ञान की भांति खुले और निष्पक्ष चित्त से सत्यानुसंधान पर जोर है । इसमें भी अंधविश्वास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। जैन-दार्शनिक मणिभद्र का स्पष्ट कथन है-'न मेरा महावीर के प्रति कोई पक्षपात है और न कपिल आदि अन्य दार्शनिकों के प्रति द्वेष ही है । मुझे युक्तिसंगत वचन ही ग्राह्य हैं चाहे वे किसी के हों।' न मे जिने पक्षपातः न द्वष कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तद ग्राह्य वचनं मम् ॥ जैन-दर्शन विश्वास और अविश्वास सभी एकान्तिक दृष्टियों का विरोध करता है और साथ ही यह मानता है कि सत्य चाहे किसी स्रोत से आवे हमें उसे ग्रहण करना चाहिये। इसमें आप्तोपदेश को आंख मूंद कर मानने पर बल नहीं दिया जाता है । भगवान् महावीर ने स्वयं कहा है--णो लोगस्स सेसणं १. विटगेन्सटाइन, 'यदि कोई मुझसे यह प्रश्न करे "क्या विटगेन्सटाइन तुम "अन्तिम न्याय के दिन" में विश्वास करते हो?" या "क्या तुम "अन्तिम न्याय के दिन" में अविश्वास करते हो ?" मैं कहूंगा-"किसी में नहीं।"-लेक्चर्स एण्ड कन्वर्सेसन ऑन साइकोलॉजी, एस्थेटिक्स एण्ड रिलीजस बिलीफ, देसिल ब्लंकवेल; ऑक्सफोर्ड, १९६७ २. A.J. Ayer, "We say that a sentence is factually significant to any given person, if and only if, he knows how to verify the proposition which it purports to express." ---Language, Truth & Logic, Victor Gollancz, 2nd. Ed. 1960, पृ० ३५ 3. Rene Descartes, Discourse on Method, in Philosophical Works of Descartes (tr) E. S. Haldan 1931, देखिए Rule IX of the Regular ४. देखिए विटगेन्सटाइन, ट्रैक्टेटस लाजिको-फिलोसॉफिक्स, ६-५३ रॉटलेज एण्ड केगेन पॉल, लन्दन, १९२२, रसेल ने भी कहा है"Whatever can be known, can be know by means of Science."—History of Western Philosophy, George Allen & Unwin Ltd., Londan 1947, पृ० ७८६ ५. देखिए, षड्दर्शनसमुच्चय, ४४ पर टीका, चौखम्भा संस्करण, पृ० ३६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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