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होने पर अपने और पराये का विभेद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी राग शून्यता की भूमि पर स्थित होकर किया जानेवाला आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है। दोनों में कोई संघर्ष नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। उस दशा में तो सर्वत्र आत्म-दृष्टि होती है जिसमें न कोई अपना है, न कोई पराया है। स्वार्थ-परार्थ की जैसी समस्या यहां रहती ही नहीं।
जैन विचारणा के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं । व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठ जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थ परार्थ का संघर्ष भी समाप्त हो जाता है। जैन विचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं।
१. द्रव्य लोकहित, २. भाव लोकहित और ३. पारमाथिक लोकहित
१. द्रव्य लोकहित-यह लोकहित का भौतिक स्तर है। भौतिक उपादानों जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोकहित सेवा करना द्रव्य लोकहित है। यह दान और सेवा का क्षेत्र है । पुण्य के नव प्रकारों में आहार दान, वस्त्रदान, औषधिदान आदि का उल्लेख यह बताता हैं कि जैन दर्शन दान और सेवा के आदर्श को स्वीकार करता है। जैन समाज के द्वारा आज भी जन-सेवा
और प्राणी-सेवा के जो अनेक कार्य किये जा रहे हैं, वे इसके प्रतीक हैं। फिर भी यह एक ऐसा स्तर है जहां हितों का संघर्ष होता है । एक का हित दूसरे के अहित का कारण बन जाता है। अतः द्रव्य लोकहित एकान्त रूप से आचरणीय भी नहीं कहा जा सकता। यह सापेक्ष नैतिकता का क्षेत्र है । भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहां तो स्वहित और परिहित में उचित समन्वय बनाना, यही अपेक्षित है।
२. भाव लोकहित-लोकहित का यह भौतिक स्तर ऊपर स्थिर है, जहां पर लोकहित के जो साधन हैं वे ज्ञानात्मक या चैतनिक होते हैं। इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है। मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाएं इस स्तर को अभिव्यक्त करती हैं।
३. पारमार्थिक लोकहित--यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, जहां स्वहित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता, कोई इंत नहीं रहता। यहां पर लोकहित का रूप होता है- यथार्थ जीवन दृष्टि के सम्बन्ध में मार्गदर्शन ।
विषमता समस्या और समता समाधान :
जैनागम साहित्य में उपलब्ध निर्देश न केवल अपने युग की सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं अपितु वर्तमान युग की सामाजिक समस्याओं के समाधान में वे पूर्णतया सक्षम हैं। वस्तुस्थिति यह है कि चाहे प्राचीन युग हो या वर्तमान युग, मानव समाज की समस्याएं सभी युगों में लगभग समान रही और उनका समाधान भी समान रहा है। वस्तुत: विषमता ही समस्या है और समता ही समाधान है। मानव समाज की सभी समस्याएं विषमता जनित हैं। विषमताओं का निराकरण समता के द्वारा ही संभव है। इसीलिए जैन आगम आचारांग धर्म की व्याख्या करते हुए कहता है कि समियाये धम्मे आरिये हि पवेइए (१/८/३)। अर्थात् आर्यजन समता को ही धर्म कहते हैं। समता ही धर्म है और विषमता अधर्म है। क्योंकि वह सामाजिक सन्तुलन को भंग करती है। विषमता चाहे वह सामाजिक जीवन में हो या वैयक्तिक जीवन में, वह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए दुःख और पीड़ा का कारण बनती है।
समाज जीवन के बाधक तत्त्व राग-द्वेष—यद्यपि यहां यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि इस विषमता का मूल क्या है, जैनागम उत्तराध्ययन में विषमता का मूल राग और द्वेष के तत्त्वों को माना गया है। राग और द्वेष की प्रवृत्तियां ही सामाजिक विषमता और सामाजिक संघर्षों का कारण बनती है। सामाजिक सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग और द्वेष की भावनायें ही काम करती हैं।
सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है। जब तक सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं, तब तक इन सम्बन्धों में विषमता स्वाभाविक रूप से उपस्थित रहती है। जब राग का तत्त्व द्वेष का सहगामी होकर काम करने लगता है तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती है। राग के कारण मेरा' या ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं। परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद का जन्म होता है। आज के हमारे सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से हमें ऊपर उठने नहीं देते हैं । यही आज की सामाजिक विषमता के मूल कारण हैं।
सामाजिक संघर्षों का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है, उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किए जाते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं। हमें अपनी रागात्मकता या ममत्व वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन किये बिना अपेक्षित नैतिक एवं सामाजिक
१. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ०६६७
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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