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________________ १३. सत्य के नित्य नूतन पक्ष उद्घाटित करने में तलर व्यक्ति तथा समाज को जागरूक तथा सृजनशील रहना होता है किन्तु पुराने सत्य को दोहराने मात्र में न जागरूकता अपेक्षित है न सृजनशीलता । दर्शन की स्थिति आज पुराने सत्य को दोहराने मात्र की है। इस लिए दर्शन देश की प्रतिभाओं को आकृष्ट नहीं कर पा रहा। यह स्थिति दर्शन सहित सभी प्राच्य विद्याओं की है। जो सत्य को जितनी ही नयी से नयी अपेक्षाओं से देख सकेगा वह सत्य की उतनी ही अनेकान्तात्मकता को उजागर कर पायेगा। इसके लिए सतत बौद्धिक गतिशीलता आवश्यक है । १४. जैन दर्शन मानव की गरिमा का उद्घोषक है, श्रम का प्रतिष्ठापक है तथा समता का समर्थक है। इसके साथ ही अहिंसा और अपरिग्रह का युगल उसकी आचार-मीमांसा का जागरूक प्रहरी है । मान, माया, क्रोध तथा लोभ पर विजय उसका लक्ष्य है । मन, वचन तथा काया का संयम उस लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है। ये जैन दर्शन के कुछ ऐसे पक्ष हैं जिन्हें सनातन कहा जा सकता है। यह धर्म का कूटस्थ पक्ष है, शेष अंश बहुत कुछ परिवर्तनशील हैं । १५. ऊपर हमने आचाराङ्ग का उल्लेख किया। आचाराङ्ग में न देवी-देवताओं का उल्लेख है, न स्वर्ग-नरक का, न यक्ष, गन्धर्व किन्नरों का, न महावीर के किन्हीं अतिशयों का, न अवधिज्ञान का, न मनःपर्यय ज्ञान का, न केवल ज्ञान का। इसकी चर्चा मैंने एक स्वतन्त्र निबन्ध में की है। परवर्ती जैन साहित्य में ये सब अतिलौकिक तत्त्व समाविष्ट हो गये । शायद इनका समावेश युग की मांग रही होगी। किन्तु क्या इन्हें धर्म का शाश्वत पक्ष मानकर आज भी इनका प्रतिपादन करते रहना आवश्यक है ? महावीर जैसे साधक के मानवीय रूप का देवीकरण कर देने से आज उनका स्वरूप उज्ज्वल होता है या धूमिल - यह विचारणीय है । १६. जैन धर्म जन्मना श्रेष्ठता के प्रतिपादन का विरोधी रहा। यही उसके वर्णव्यवस्था के विरोध का आधार था - -कम्मुणा बम्होणो होई कम्मुणा होई खतिओ किन्तु उसी जैन धर्म की परम्परा ने यह घोषणा कर दी कि तीर्थकर केवल एक वर्ण विशेष क्षत्रियवर्ण - में भी एक वर्गविशेष- राजवर्ग में ही उत्पन्न हो सकते हैं। यही नहीं, एक परम्परा के अनुसार महावीर का जन्म ब्राह्मण कुल में इसलिए नहीं सम्भव हो सका कि ब्राह्मण का वंश नीचगोत्र है और एक तीर्थङ्कर नीचगोत्र में उत्पन्न हो नहीं सकते। समझ में नहीं आता कि जन्मना किसी की उच्चता तथा नीचता का विरोध करने वाली परम्परा में यह मान्यता कैसे प्रश्रय पा सकी । वस्तुतः मानवस्वभाव वंशपरम्परा को भी महत्त्व देता ही है अतः जन्म की अपेक्षा पुरुषार्थ को ही श्र ेष्ठता का सिद्धान्ततः आधार मानने पर भी अनजाने में जैन- परम्परा जन्म को महत्त्व दे ही बैठी। किन्तु इसे धर्म का शाश्वत रूप मान लेना ठीक न होगा। एक बार इस परम्परा के प्रतिष्ठित हो जाने पर यह सम्भव है कि तीर्थकरों में कुछ ऐसे व्यक्ति भी जो वस्तुतः राजवंश से न हों- राजवंश से जोड़ दिये गये हों। इसी प्रकार परम्परा के अनुसार सभी तीर्थकर सुन्दर हैं। संयमी व्यक्ति का आध्यात्मिक सौन्दर्य होता है यह सत्य है किन्तु उनकी नाक चपटी न होती हो या उसके अधर मोटे न हो सकें या उसका वर्ण काला न हो ऐसा कोई नियम नहीं । राजकुमार - अर्थ और काम का पर्याय है। उसके संयम को एक सामान्य व्यक्ति के संयम की अपेक्षा अधिक महत्व देकर तीर्थकर और केवली के बीच जो भेदक रेखा खींची गयी है उससे परोक्ष में भोग को मूल्य मिलता है और प्रजातन्त्र तथा समाजवाद के इस युग में सामान्य व्यक्ति का महत्त्व कम होता है। १७. राजकुमार ही तीर्थकर हो सकता है - यह घोषणा साहित्य क्षेत्र की इस घोषणा की प्रतिध्वनि है कि राजा ही नाटक का नायक हो सकता है। लेकिन आज का युग राजा रानियों का नहीं, प्रेमचन्द के होरी और धनिया का युग है। अपरिग्रह को महत्त्व देने वाला दर्शन तीर्थङ्कर बनने के लिए राजकुमार होने की शर्त लगाये - यह सामन्तवादी युग का ही प्रभाव कहा जायेगा। इसी प्रभाव के अधीन ब्रह्मचर्य की महिमा गाने वाले दर्शन ने अपने महापुरुषों-शलाकापुरुषों के अनेकानेक सहस्र रानियों की कल्पना की। ये सब धारणायें धर्म की समसामयिक व्याख्या हैं जो कदाचित् धर्म के मूलभूत रूप से मेल नहीं खातीं। १८. जैन धर्म के क्षेत्र में एक विशेष चिन्तनीय विषय है-समाजदर्शन। जैन दर्शन का प्रादुर्भाव एक व्यक्तिनिष्ठ दर्शन के रूप में हुआ या सम्भव है कि प्रोगैतिहासिक काल में उसका कोई सामाजिक पक्ष भी रहा हो क्योंकि परम्परा मानती है कि ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि की भी व्यवस्था दी थी। किन्तु आज जैन धर्म के जो सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं उनसे कोई व्यवस्थित समाज की रूपरेखा सामने नहीं आती। किसी व्यक्तिगत आचारमीमांसा के समाजोपयोगी पक्ष हो सकते हैं किन्तु इस कारण उस आचार मीमांसा को समाज दर्शन नहीं कहा जा सकता। इस अभाव की पूर्ति के अनेक प्रयत्न हुए हैं किन्तु अनेक समस्याओं का समाधान अभी शेष है । १६. इन समस्याओं में एक समस्या का उल्लेख यहां इसलिए किया जा रहा है कि वह आज की प्रमुख समस्या है। समाजवाद सबको विकास का समान अवसर देना चाहता है। पूंजीवादी व्यवस्था में एक वर्ग विशेष धन के बल पर अपने लिए कुछ विशेष सुविधा जुटा लेता है। इन दोनों विचारधाराओं के बीच जो संघर्ष है समाजवाद उसका अन्त करने के लिए हिंसा का भी प्रश्रय अनुचित नहीं मानता । धनी समाज का शोषण करके धन एकत्रित करता है - यह अन्याय है । इस अन्याय के विरुद्ध हिंसक क्रान्ति की जा सकती है—यह समाजवाद का मत है । कर्मवादी गरीब अमीर का भेद कर्मकृत मानता है मनुष्यकृत नहीं— कम से कम सामान्य धारणा यही है। समाजवाद समता तथा न्याय की स्थापना के सामूहिक लक्ष्य के लिए हिंसा को अनुचित नहीं मानता। अपरिग्रहवाद का सिद्धान्त समाज की आर्थिक विषमता को समाप्त नहीं ३८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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