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जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ
सम्पादकीय
आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म तथा दर्शन की प्रासंगिकता का प्रश्न विशुद्ध रूप से एक समाजशास्त्रीय प्रश्न है तथा युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में यह अनेक ज्वलंत समस्याओं की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित करता है। वर्तमान युग के वैज्ञानिक आविष्कारों तथा आधुनिक समाजदर्शन सम्बन्धी अवधारणाओं की दृष्टि से धर्म-दर्शन सम्बन्धी अनेक प्राचीन मान्यताओं को अब आधुनिक समाजशास्त्र सन्देह दृष्टि से देखता है फलतः जैन धर्म-दर्शन ही नहीं बल्कि विश्व के सभी प्राचीन धर्मों और दर्शनों के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं । आधुनिक विचारक इस सीमा तक पहुंच चुका है कि वह प्राचीन धर्म और दर्शन को अज्ञान एवं भय की मानवीय प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार करता है।' धर्म और दर्शन को इतिहास में पहले कभी इतनी तीखी आलोचना का सामना नहीं करना पड़ा जितना कि आज । परिणामत: आज सभी धर्मों और दर्शनों के पुनर्मूल्यांकन की युगीन आवश्यकता आ पड़ी है। सभी धर्मों और दर्शनों के विद्वान अपने-अपने धर्म-दर्शन में प्रासंगिकता की गवेषणा में संलग्न हैं। कतिपय विचारक धर्म और दर्शन को आधुनिक विज्ञान की कसौटी में परखने की अवधारणा से अनुप्रेरित हैं तो ऐसे भी अनेक विद्वान् हैं जिनकी दृष्टि में धर्म और दर्शन की सार्थकता तथा प्रासंगिकता सामाजिक समस्याओं के समाधान करने पर निर्भर है। धर्म और दर्शन की प्रासंगिकता से सम्बद्ध अभी अनेक प्रश्न अछुते भी रहे हैं। उदाहरणार्थ अभी इस समस्या का विश्लेषण नहीं किया गया है कि आधुनिक सन्दर्भ में धर्म और दर्शन को प्रासंगिक सिद्ध करने की आवश्यकता क्यों पडी? धर्म
और दर्शन यदि समाज चेतना से जुड़े हुए हैं तो फिर युग-परिस्थितियों से उत्पन्न समस्याओं की विभीषिका को रोकने में उनकी भमिका शिथिल क्यों हुई? ऐसा लगता है कि धर्म और दर्शन की मान्यताओं का युग चिन्तन की मौलिक समस्याओं के साथ सम्बन्ध ट सा गया है। इसी सम्बन्ध विच्छेद के कारण आज सभी प्राचीन धर्मों और दर्शनों की तुलना संग्रहालय में रखी उन प्राचीन एवं गौरव पूर्ण वस्तुओं के साथ की जा सकती है जिनके प्रति प्रत्येक जन-मानस श्रद्धा एवं गौरव के भाव से नतमस्तक रहता है परन्तु सामाजिक उपादेयता की दृष्टि से उनकी भूमिका उपेक्षित रहती है। १. समसामयिक प्रासंगिकता और धर्म-दर्शन :
सिद्धान्ततः प्रत्येक धर्म-व्यवस्था में कूटस्थ एवं परिवर्तनशील मूल्यों का शास्त्रीय औचित्य बना ही रहता है फिर भी कूटस्थता के प्रति दढ़ आग्रहों को लेकर चलने वाले धर्मों में परिवर्तनशील मूल्यों के प्रति उदासीनता आ जाती है। इसी 'उदासीनता' का दूसरा समाजशास्त्रीय नाम है 'अप्रासंगिकता' । इस दृष्टि से विचारकों के समक्ष मुख्य समस्या यह है कि धर्म और दर्शन को समसामयिक परिस्थितियों में प्रासंगिक दिशाएं प्रदान करने हेतु किस प्रकार के प्रयास अपेक्षित हैं। इस ओर प्रत्येक धर्म और दर्शन के प्रबुद्ध आचार्य, धर्म-साधना में
१. "The modern man feels that religion, in the ancient days, had its origin in the feeling of fear'. Adam
Gowans Whyte says in his book 'The Religion of the Open Mind'-"Science has proved that all those ideas which theologians imagined to be glimpses under the veil of Mystry are merely the visions of human ignor. ance and fear".
-G. N. Joshi, Religion its Relevence to the Modern Times (article) Seminar on Validity and value of
Religious Experience" Belgaum, 1968, पृ० ४१-४२ 3. "In modern Philosophy and in Science there have been tendencies to discredit religion and mystical expe
rience as an illusion and a mental aberration.", T.G. Kalghatgi, "Mysticism",(article), वही, पृ०१५
जैन तत्स्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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