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समर्थन करती है । कर्मवादी इस जैन मान्यता के अनुसार सृष्टि अनादि काल से चली आ रही है । वे यह भी मानते हैं कि उपनिषदों में भी कर्मवाद को स्वीकार करते हुए संसारी जीव के जिस अस्तित्व को स्वीकार किया गया है, वह जैन मान्यता का ही प्रभाव है-"जैन परम्परा का प्राचीन नाम कुछ भी हो, किन्तु यह बात निश्चित है कि वह उपनिषदों से स्वतंत्र और प्राचीन है अत: यह मानना निराधार है कि उपनिषदों में प्रस्फुटित होने वाले कर्मवाद-विषयक नवीन विचार जैन-सम्मत कर्मवाद के प्रभाव से रहित हैं । जो वैदिक परम्परा देवों के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ती थी, वह कर्मवाद के इस सिद्धान्त को हस्तगत कर यह मानने लगी कि फल देने की शक्ति देवों में नहीं, प्रत्युत स्वयं यज्ञकर्म में है।" मालवणिया जी के ये विचार भी उल्लेखनीय हैं कि "उपनिषदों से पहले जिस कर्मवाद के सिद्धान्त को वैदिक देववाद से विकसित नहीं किया जा सका, उस कर्मवाद का मूल (भारत के) आदिवासियों की पूर्वोक्त मान्यता से सरलतया संबद्ध है।"२ पूर्वोक्त मान्यता यह रही है कि आदिवासी यह मानते थे कि मनुष्य का जीव मरकर वनस्पति आदि के रूप में जन्म लेता है तथा आदिवासियों की इस विचारधारा को अन्धविश्वास नहीं माना जा सकता। अभिप्राय यह है कि मालवणिया जी कर्मवाद के मूल सिद्धान्त को आदिवासियों की दार्शनिक मान्यता बता रहे हैं तथा जैन धर्म-सम्मत जीववाद और कर्मवाद के साथ उसकी परम्परागत संगति बैठाने का प्रयास कर रहे हैं।
पं० मालवणिया जी की उपयुक्त मान्यता की गम्भीरता से समीक्षा की जाए तो यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि ऋग्वेद के काल में ही भारतीय आर्य यज्ञानुष्ठान की जिस प्रक्रिया को अपना चुके थे, उसके पीछे कर्मवाद का मनोविज्ञान कार्य कर रहा था। ऋग्वेद के प्राचीनतम माने जाने वाले मण्डलों में ही कर्मवाद' के महत्त्व कोस्वाकार किया गया है। पूर्व जन्म के पाप-कर्मों से छुटकारा मिलने के लिए देवताओं से प्रार्थना की गई है। संचित तथा प्रारब्ध कर्मों का वर्णन भी ऋग्वेद में उपलब्ध होता है । वामदेव ने अपने अनेक पूर्व जन्मों का भी वर्णन किया है। अच्छे कर्मों द्वारा देवयान से ब्रह्मलोक जाने की तथा साधारण कर्मों द्वारा पितृयान मार्ग से जाने की मान्यता भी ऋग्वेद-काल में प्रचलित हो चुकी थी ! पूर्व जन्मों के निम्न कर्मों के भोग के लिए ही जीव वृक्ष, लता आदि स्थावर शरीर में प्रवेश करता है, जैसी मान्यता से भी ऋग्वेद का ऋषि परिचित है।" एक जीव दूसरे जीव के द्वारा किए गए कर्मों का भोग कर सकता है, यह मान्यता भी ऋग्वेद में उपलब्ध होती है जिससे बचने के लिए मा वो भुजेमान्यजातमेनो," मा व एनो अन्यकृतं भुजेम' आदि मंत्रों का ऋग्वेद में स्पष्ट उल्लेख आया है। इस प्रकार यह कहना अयुक्तिसंगत होगा कि वैदिक मान्यता के अनुसार 'कर्मवाद' को अस्वीकार किया गया है । जहां तक प्रश्न इस तथ्य का है कि उपनिषद्-काल में जैन परम्परा के प्रभाव से वैदिक दर्शन प्रभावित हुआ था, या फिर आर्यों ने भारत के मूल आदिवासियों से 'कर्मवाद' को ग्रहण किया, विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक छान-बीन की समस्या है। अभी तक के उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि वस्तुत: कर्मवाद आर्यों की निजी मान्यता नहीं थी तथा किसी अन्य सभ्यता से ही उन्होंने इसे ग्रहण किया था।
भारतीय दर्शन का परवर्ती विकास
अस्तु, वैदिक दर्शन के उपनिषद्-काल तक के विकास की चाहे जिस किसी भी मान्यता का समर्थन किया जाए, कतिपय दार्शनिक मान्यताएं भगवान् बुद्ध तथा महावीर के काल तक एक निश्चित वाद के रूप में पल्लवित हो चुकी थीं । बौद्ध दार्शनिकों ने न तो वैदिक शाश्वतवादियों का ही समर्थन किया है और न ही उच्छेदवादियों को प्रश्रय दिया है। उनके अनुसार पुद्गल को ही कर्ता और भोक्ता स्वीकार किया गया है जिसे 'प्रतीत्यसमुत्पाद' का सिद्धान्त दार्शनिक दृष्टि प्रदान करता है अर्थात् एक नाम-रूप से दूसरा नाम-रूप उत्पन्न होता है। दूसरा नाम
१. दलसुख मालवणिया : आत्ममीमांसा, पृ० ८१-८२ २. वही, पृ०८१ ३. वही, पृ०८१ ४. ऋग्वेद, ३/३८/२; ३/५५/१५, ४/२६/२७, ६/५१/७, ७/१०१/६ ५. ऋग्वेद, ६/२/११ ६. "इनोत पृच्छ जनिमा कवीनां मनोधतः सुकृतस्तक्षत द्याम् ।" ऋग्वेद, ३/३८/२
"द्वा मुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषस्व जाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ।।" ऋग्वेद, १/१६४/२० ७. ऋग्वेद, ४/२६, ४/२७ ८. "अस्यमध्वः पिबत मादयध्वं तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः ।" ऋग्वेद, ७/३८/८ है. "पन्यामन प्रविद्वान् पितयाणं य मदग्ने समिधानो वि भाहि ॥" ऋग्वेद, १०/२/७ १०. ऋग्वेद, ७/६/३, ७/१०१/६, ७/१०/२ ११. "मा बो भुजेमान्यजातमेनो मा तत् कर्म वसवो यच्चयध्वे ।", ऋग्वेद, ७/५२/२ १२. "मा व एनो अन्यकृतं भुजेम मा तत् कम वसवो यच्चयध्वे ।" ऋग्वेद, ६/५१/७
जैन दर्शन मीमांसा
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