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आचार्य कुन्दकुन्द और उनका दार्शनिक अवदान
डॉ० प्रभुदयालु अग्निहोत्री
उपनिषत्कालोत्तर दार्शनिक चिन्तकों में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान मूर्धन्य है। वैदिक और अवैदिक दोनों दर्शन-मार्गों में उनको श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है। जैन धार्मिक परम्परा में वह भगवान् महावीर और गौतम के पश्चात् तृतीय स्थान पर प्रतिष्ठित हैं
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमोगणी।
मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ प्राकृत पाहुडों के रचनाकार के रूप में वह दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के सर्वाधिक सम्मानित आचार्य हैं। उनकी रचनाओं में समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं, यद्यपि जैनाचार-विचार के विवेचन की दृष्टि से नियमसार, रयणसार, अष्ट (दसण, चारित्र, सुत्त, वोह, भाव, मोक्ख, लिंग, सील) पाहुड, दश (तीर्थकर, सिद्ध, चारित्र, अनगार, आचार्य, निर्वाण, पंचपरमेष्ठि, नंदीश्वर, शान्ति, श्रुत) भक्ति और बारसअणुवेक्खा का मूल्य भी कम नहीं है । यो परम्परा इन्हें ८४ पाहुडों का रचयिता मानती है।
__ आचार्य कुन्दकुन्द का मूल नाम अज्ञात है। देवसेनाचार्य के दर्शनसार से इनका दीक्षा नाम पद्मनन्दि ज्ञात होता है
जइ पउमणंदि-णाहो सीमंधर सामि-दिव्वणाणण।
ण विवोहइ तो समणा कह सुमग्गं पयाणंति ॥२३॥ इनका कुन्दकुन्द नाम जन्म-ग्राम कोण्डकुण्ड (तमिलनाडु में गुन्तकुल के पास) के नाम पर प्रसिद्ध हुआ। अन्य महान् दार्शनिकों के समान इस आचार्य को जन्म देने का श्रेय भी दक्षिण भारत को प्राप्त है। भक्ति और दर्शन दोनों के आगमों और सूत्रों के निबन्धन का कार्य धुर दक्षिण में हुआ। इनके पिता का नाम करमण्डु और माता का नाम श्रीमती बतलाया जाता है। अन्य महान् सन्तों और विद्वानों के समान कुन्दकुन्द के जीवन के साथ भी अनेक किंवदन्तियाँ जुड़ी हुई हैं। फिर भी इतना लगभग निर्विवाद है कि वह मूलसंघ के आदि प्रवर्तक थे जिसकी सत्ता चतुर्थ-पंचम शती ईस्वी में प्राप्त होती है। इन्हीं के ग्राम से प्रभूत मुनि परम्परा को कुन्दकुन्दान्वय के नाम से (जिसका अस्तित्व सप्तम ई. से मिलने लगता है) अभिहित किया जाता है।
आचार्य कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है । परम्परा उन्हें पहली या दूसरी ईस्वी शताब्दी से जोड़ती है किन्तु उनके ग्रन्थों में प्रयुक्त भाषा एवं तत्कालीन स्थिति पर उनके द्वारा की गयी टिप्पणियों एवं श्वेताम्बरों पर उनके द्वारा किये हुए आक्षेपों तथा उनके द्वारा निरूपित अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक मतों को अन्य भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि में देखने पर उनका समय चतुर्थ ईस्वी शताब्दी के पूर्व का नहीं जान पड़ता। वह सांख्यकारिका और प्रस्थानत्रयी के मध्यवर्ती विचारक हैं। समयसार की प्रथम कारिका उनसे पूर्व श्रुतकेवलियों की लम्बी श्रृंखला का आभास देती है। यह बात भी उक्त धारणा की पुष्टि करती है। चाहे वह द्वितीय शताब्बल में रहे हों या चतुर्थ में, इससे उनकी महत्ता में कोई अन्तर नहीं आता है। आद्य शंकराचार्य से तो पूर्ववर्ती वह थे ही।
कुन्दकुन्द की रचनाओं में समयसार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस पर आगे सविस्तार चर्चा की जाएगी। प्रवचनसार में २७५ गाथायें हैं जो ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीन श्र तस्कन्धों में विभाजित हैं। इसमें आत्मा के मूल गुण-ज्ञान के स्वरूप, सर्वज्ञता की सिद्धि, शुभ, अशुभ और शुद्धोपयोग तथा मोह, क्षय जैसे आत्मा से सीधे सम्बन्धित विषयों का विवेचन है। द्वितीय स्कन्ध में ज्ञय अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्याय, सप्तमंगीनय, पुद्गल, निश्चय और व्यवहार आदि का निरूपण है। चारित्राधिकार में श्रमणों की दीक्षा तथा उनकी कायिक-मानसिक साधनाओं पर प्रकाश डाला गया है। पंचास्तिकाय में कुल १८१ गाथायें हैं जिनमें पांच अस्तिकायों-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के स्वरूप की मीमांसा है। यह ग्रन्थ का प्रथम स्कन्ध है। द्वितीय स्कन्ध में पुण्य, पाप, जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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