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________________ आगम-साहित्य में योग के बीज मुनि श्री राकेश कुमार जी योग शब्द का व्यापक प्रचलन संभवतः महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के साथ हुआ है, किन्तु योग से जो उद्दिष्ट है, किसी न किसी रूप में उसका अस्तित्व पूर्ववर्ती साधना-क्षेत्र तथा लोक-जीवन में भी रहा है। अध्यात्म पर आधारित उस साधना के लिए तप शब्द का प्रयोग अधिक होता था। आत्मा में जो असीम शक्ति, अनुपम ओज मान्यता प्रारम्भ से रही है, उसके प्रकट हो जाने पर आत्मा में छिपी शक्ति उद्घाटित हो जाती है, साधक दुःखों से मुक्त हो जाता है, उसे यौगिक ऋद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। इन्हीं कारणों से भौतिक सुविधामय जीवन को गौण मानकर तपश्चरण तथा नानाविध कष्ट का जीवन साधकों को अभिप्रेत हुआ। कष्ट सामान्य व्यवहार की भाषा है । जब कोई व्यक्ति विशेष-लक्ष्य में प्राणपण से जुट जाता है, तो उसके लिए कष्ट का भाव वहां नहीं रहता। वह एक विशेष भावनामय आनन्द में निमग्न होकर हर स्थिति में लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। इस तपःप्रधान साधना के लिए देहातीत स्थिति का विकास तथा बाह्य जगत् की क्रिया-प्रतिक्रिया से मुक्त होना अपेक्षित है। ऐसा होने से ही वासना का क्षय हो सकता है, भोग-लिप्सा अपगत हो सकती है। समय-समय पर बड़े-बड़े धनकुबेर तथा सत्ताधीश भी इस जीवन को सहर्ष अपनाते रहे हैं। . ऐसी घोर तपोमयी कृच्छसाधना में अभिमत साधकों के लिए वैदिक-पौराणिक साहित्य में अवधूत शब्द का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है, अवधूत का शाब्दिक अभिप्राय 'सर्वथा कंपा देने वाला' या 'हिला देने वाला है । अवधूत शब्द के साथ प्राचीन वाङ्मय में जो भाव जुड़ा है, उसमें भोग-वासना के प्रकम्पन की दृष्टि प्रमुख है। जिसने तपोमय जीवन द्वारा एषणाओं को झकझोर दिया, वह अवधूत है। भागवत में ऋषभदेव का एक अवधूत साधक के रूप में चित्रित किया गया है। भागवत के पांचवें स्कन्ध के सातवें, आठवें, नवें तथा दसवें अध्याय में भरत का, जो वैदिक-पौराणिक वाङ्मय में जड़भरत के नाम से प्रसिद्ध हैं, चरित्र है। भरत ऋषभदेव के पुत्र थे। ऋषभदेव उन्हें राज्य देकर स्वयं तप की साधना में समर्पित हो गये थे। भरत एक महान् शासक थे। वे प्रजा-पालन के साथ ही धर्माराधना, सदाचार व शिष्टाचार के परिशीलन में रत थे। उन्हें धर्म की अनुचिन्ता में सर्वाधिक त्रास था। उनकी भक्ति तथा धर्मनिष्ठा उत्तरोत्तर इतनी सम्बन्धित हो गई कि उन्होंने राज्य, सम्पत्ति, परिवारादि की ममता को त्यागकर तथा वंशक्रमागत वैभव का यथोचित रूप से पुत्रों में विभाजन कर स्वयं को ब्रह्माराधना में जोड़ दिया। आगे भरत के घोर तितिक्षामय जीवन का एक अवधूत साधक के रूप में वर्णन है। भागवत के ११वें स्कन्ध में दत्तात्रेय का एक अवधूत के रूप में विस्तृत आख्यान है। ऐसा लगता है, साधना के क्षेत्र में वह एक तपःप्रधान युग था। जैसी घोर, कृच्छ अवधूत-साधक की चर्या का वर्णन भागवत में हुआ है, बौद्ध साहित्य में भी उसी प्रकार के साधनामय जीवन से सम्बद्ध वर्णन प्राप्त होते हैं । मज्झिमनिकाय' में एक स्थान पर अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र को सम्बोधित कर बुद्ध ने अपनी उस तपोमय कठोर साधना का विस्तार से वर्णन किया है, जो उन्होंने बोधि प्राप्त करने से पूर्व आचीर्ण की थी। अवधूत साधक का जिस प्रकार का विवेचन भागवत में आया है। वह वैसा ही है, जैसा मज्झिमनिकाय में बुद्ध के तपश्चरण का वर्णन है। उसी सरणि का संस्पर्श करता हुआ वर्णन जैन-आगमों में प्राप्त होता है। जैन-आगमों में आचारांगसूत्र का विशेष महत्व है। वह १. भागवत, ५/३/२० २. वही, ११/७/२५-३०, ३२-३५ ३. मज्झिमनिकाय, महासीहनादसुत्तन्त, १/२२ १४० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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