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________________ मूनिलिंग गहीलिंग दोनों को मोक्ष मार्ग होने का निषेध करते हैं और दूसरी ओर लिखते हैं कि व्यवहार नय से दोनों लिंग मोक्षमार्ग हैं किन्तु निश्चयनय सभी लिंगों को मोक्षमार्ग में नहीं चाहता इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द और उनके प्रमुख टीकाकार अमृतचन्द्र निश्चयप्रधान कथन का सहारा लेते हुए अपनी संतुलित दृष्टि को नहीं छोड़ते।। यही कारण है कि निश्चय का व्याख्यान करते हुए भी व्यवहार दृष्टि को भी कहना चाहते हैं । आचार्य अमृतचन्द्र ने तो अपनी इस संतुलित दृष्टि के लिये स्याद्वाद अधिकार में उपाय और उपेय भाव का चिन्तन किया है। जिसमें उपाय को व्यवहार और निश्चय को उपेय माना है अर्थात् दोनों में साधनसाध्यभाव माना है । व्यवहार को भेद रत्नत्रय कहकर उसे अभेद रत्नत्रय का साधन माना है और अभेद रत्नत्रय को साध्य माना है । यह अधिकार उन्हें एकान्त के विरोध में स्याद्वाद के लिये लिखना पड़ा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मंगलाचरण में समयसार को कहने की प्रतिज्ञा की है और समयसार का उद्भव श्रुतकेवली से बताया है। यद्यपि टीकाकारों ने श्रुतकेवली का अर्थ श्रुत और केवली दोनों के द्वारा कहा हुआ भी बतलाया है। पर वस्तुतः कुन्दकुन्द का समयसार को श्रुतकेवली कथित कहने का अभिप्राय विशेष रहा है। शास्त्रों में केवली अरिहन्त को अर्थकर्ता बताया है और गणधर श्रुतकेवली को ग्रन्थकर्ता बताया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि केवली मात्र-वस्तु का प्ररूपण करते हैं। किन्तु गणधर उसमें स्याद्वाद का पुट देकर उसे श्रुत का रूप देते हैं। श्रुत शब्द का अर्थ ही 'सुना हुआ है। चूंकि गणधर इसे केवली तीर्थंकर के मुख से सुनते हैं और सुनने के बाद जब उसे ग्रथित करते हैं वह श्रुत का रूप ले लेता है । क्योंकि वह सुना हुआ है। अत: गणधर श्रुतकेवली की रचना नयप्रधान होती है। जैसाकि आचार्य अमृतचन्द्र के ‘उभपनयापत्ता हि पारमेश्वरीदेशना' इस वाक्य से स्पष्ट है अर्थात् परमेश्वर द्वारा उपदिष्ट श्रुत व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को लेकर होता है । चूंकि प्रस्तुत ग्रन्थ समयसार किसी एक नय को प्रधान करके लिखा जा रहा है अतः नयप्रधान कथन की प्रामाणिकता श्रुत के आधार पर ही हो सकती है और श्रुत केवलीकथित होता है। इसलिये कुन्दकुन्द भी समयसार को श्रुतकेवली-कथित बताते हैं । शास्त्रों में केवली के ज्ञान को प्रमाणज्ञान बताया है क्योंकि वह पदार्थ की अनन्तगुणपर्यायों को युगपत् देखता है किन्तु क्रमिक ज्ञान स्याद्वाद से संस्कृत होकर ही प्रमाणभूत होता है। इस तरह हम देखते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की परम्परा को जो श्रुतकेवली से जोड़ा है वह विशेष अभिप्रायः से खाली नहीं है, क्योंकि आगम का वाक्य है कि भगवान् का उपदेश दोनों नयों (व्यवहार, निश्चय) के आधीन हैं। अतः कुन्दकुन्द का समयसार भी परम्परा से भगवान् का उपदेश ही है अतः वह एक नय (निश्चयनय) के ही आधीन कैसे हो सकता है। इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ने अपने विषय के प्रतिपादन में दोनों नय-दृष्टियों को अपनाया है यही उनकी संतुलित दृष्टि है। जीवात्मा के साथ जब तक नित्य-नैमित्तिक का सम्बन्ध अशुद्धभाव से है, तब तक आत्मा को स्व-पर का ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है । इस सन्दर्भ में कुन्दकुन्दाचार्य अपने ग्रन्थ नियमसार में स्पष्टीकरण देते हैं णो खलु सहावठाणा, णो माणवमाण भावठाणा वा। णो हरिसभावठाणा, णो जीवस्स हरिस्स ठाणा वा ॥ भूत, भविष्य तथा वर्तमान --तीनों काल में जो निरुपाधि-स्वभाव है अर्थात् जिसकी कोई परद्रव्यसम्बन्धी उपाधि नही हैं। इस प्रकार के शुद्ध जीवास्तिकाय का निश्चय से कोई विभाग रूप स्वभाव नहीं है, शुभ-अशुभ समस्त मोह, राग और द्वेष के अभाव से उस शुद्ध जीव में मान-अपमान के कारणभूत किसी कर्म का उदय नहीं होता। निश्चय से भी उसकी शुभोपयोग रूप परिणति नहीं होती, इसलिए शुभ-कर्म का बंध नहीं होता। शुभ-कर्म का बंध न होने से सारहीन सांसारिक सुख नहीं होता, सांसारिक सुख का अभाव होने से उस शुद्ध आत्मा (जीव) में कोई हर्ष-स्थान सिद्ध नहीं होता। इस अवस्था में आत्मा में अशुभ परिणमन नहीं होता। (आचार्यरत्न श्री देश भूषण जी महाराज कृत उपदेसारसंग्रह, भाग ३, दिल्ली, वि० सं० २०१३ से उद्धृत) जंन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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