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________________ अत: व्यक्ति को इच्छाओं पर संयम रखना चाहिए और उतना ही लेना चाहिए जितना जीवन-रक्षा हेतु आवश्यक हो । भगवान् महावीर ने माना है कि 'जैसे भौंरा फूल के सौन्दर्य को नष्ट किये बिना केवल आवश्यकता भर मधु ले लेता है और कोई संचय नहीं करता, वैसे ही व्यक्ति को जीवन-यापन करना चाहिए।" इस प्रकार जैन दर्शन ईश्वरवादी परिप्रेक्ष्य से हटकर मात्र आत्मावादी परिप्रेक्ष्य में बन्धन और मोक्ष की व्याख्या करता है। इसके अनुसार मनुष्य अपने चलते बन्धन में है, इसलिए अपने प्रयत्न से ही मुक्त हो सकता है।' स्वयं पर विजय पाना ही असली विजय है-सब्बमप्पे जिए जियं ।' कर्मों के पूर्ण विनाश को ही मुक्ति कहते हैं और वही शुद्धात्मा का स्वरूप वीतराग अवस्था है-स आत्यन्तिकः सर्वकर्मनिक्षेपो मोक्ष इत्युच्यते (तत्त्वार्थराजवात्तिक, १/१/३७)। कर्मों का निर्मूल नाश करने के लिए दो प्रयत्न हैं-कर्मास्रव का निरोध तथा निर्जरा। कर्मों का समूल नाश करने के लिए मुमुक्षु जीव को सर्वप्रथम मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग के स्रोतों से बंधने वाले नवागन्तुक कर्मों को रोकना चाहिए, तदनन्तर पूर्व बद्धकर्मों को तपस्या आदि के द्वारा नष्ट करना चाहिए। इनमें से प्रथम प्रयत्न को संवर तथा द्वितीय को निर्जरा कहते हैं । इस प्रकार आत्मा और (कर्म के) बंध का पृथक्करण ही मोक्ष कहा जाता है आत्मबन्धयोद्विधाकरणं मोक्षः, (समयसार, २८८) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांच आस्रवबंध के हेतु मोह के कारण माने गए हैं। मोह मिथ्यात्व का बलिष्ठ हेतु है, इसी के कारण जीवात्मा चारों गतियों तथा सातों नरकों में सदैव भ्रमण करता है। जहां मिथ्यात्व है, वहां अविरति, प्रमाद, कषाय और योग भी हैं। इन पांचों के माध्यम से आत्मा कर्मास्रव के द्वारा बन्ध में पड़ जाता है। तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं, इससे विपरीत अश्रद्धान मिथ्यात्व कहलाता है। यह दो प्रकार का है -- नैसगिक तथा गृहीत । छ: कायिक जीवों की हिंसा का त्याग न करना पाँचों इन्द्रियों तथा मन को विषयासक्ति से न रोकना अविरति है। शुभ कार्यों में आलस्य करना प्रमाद कहलाता है। भोजन, स्त्री, देश तथा राज-ये चार कथाए; क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय; पांचों इन्द्रियां, निद्रा और स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं। सोलह तथा नौ कषाय-ये पच्चीस कषाय हैं। चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग-ये पन्द्रह योग हैं । ये सब मिलकर अलग-अलग आत्मा के बंध के कारण हैं। यदि आत्मा अपने निर्विकल्प स्वरूप के विपरीत उपर्युक्त पांचों आस्रवों से पराङ्मुख होकर स्वस्वरूप में निमग्न हो जाए तो अबंध (मोक्ष) का कारण होकर अखण्ड सुख का स्वामी बन सकता है। (आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज कृत उपदेशसारसंग्रह, भाग ४, दिल्ली, वी०नि० सं० २४८४ से उद्धृत) १. 'जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरी आवियई रस । न य पुष्फ किलामेइ, सोय पीणे इ अप्पयं ।', दशवकालिक सुव, १२ २. 'बंधप्प मोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव', आचारांग सूत्र, १/५/२ ३. उत्तराध्ययन सूत्र, ६/३६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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