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________________ कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि के भेद से असज्ज्ञान तीन प्रकार का है। इसी प्रकार दर्शनोपयोग भी दो प्रकार' का है-स्वभावदर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग । जो इन्द्रियरहित और असहाय है, वह केवलदर्शन स्वभावदर्शनोपयोग है। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीनों विभाव दर्शनोपयोग है। ज्ञानदर्शनरूप उपयोगमय जीव ही आत्मा है । चेतयिता है । अकलंकदेव ने कहा है कि दशसु प्राणेषुयथोपात्तप्राणपर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात् जीवति अजीवीत् जीविष्यति वा जीवः, राजवाति क, ६/४/७/२५ । जैन दर्शन में जीव (आत्मा) के स्वरूप का प्रतिपादन सभी दर्शनों को दृष्टि में रखकर किया गया है। इसके स्वरूप से सम्बन्धित प्रत्येक विशेषण किसी न किसी दर्शन से सम्बन्ध रखता है-जैसा कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव की गाथा से स्पष्ट है जीवो उवओगमओ अमुत्तो कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥, द्रव्यसंग्रह, २ जीव, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेहपरिणामी है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है, और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने बाला है। चार्वाक आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व न मानकर शरीर को ही आत्मा मानता है। जीव सदा जीता है वह अमर है कभी नहीं मरता है। उसका वास्तविक प्राण चेतना है, जो उसी की तरह अनादि और अनन्त है। उसके व्यावहारिक प्राण भी होते हैं, जो पर्याय के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियां, मनोबल, वचनबल, कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयु ये दस प्राण संज्ञी पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, नारकियों में होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय के नव प्राण, चार इन्द्रिय वाले के आठ, तीन इन्द्रिय वाले के सात, दो इन्द्रिय वाले के छ: और एकेन्द्रिय के चार प्राण होते हैं । योनियों के अनुसार प्राणों में परिवर्तन होता रहता है। शरीर का परिवर्तन होता रहता है किन्तु चैतन्य नष्ट नहीं होता । अतएव शरीर की अपेक्षा जीव (आत्मा) भौतिक है और चेतना की अपेक्षा अभौतिक है। नैयायिक और वैशेषिक आत्मा को ज्ञान का आधार मानते हैं। जैन दर्शन में आत्मा को आधार और ज्ञान को आधेय नहीं माना गया किन्तु जीव (आत्मा) ज्ञानस्वभाव वाला माना गया है जैसे कि अग्नि ऊष्णस्वभावात्मक है। अपने से सर्वथा भिन्न ज्ञान से आत्मा कभी ज्ञानी नहीं हो सकता है । भाट्टमतानुयायी मीमांसक और चार्वाक आत्मा को मूर्त पदार्थ मानते हैं किन्तु जैन दर्शन की मान्यता है कि पुद्गल में जो गुण विद्यमान है, आत्मा उनसे रहित है जैसा कि कहा गया है अरसरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं। जाण अलिंगरगहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं ॥' जीव को रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, स्पर्शरहित, शब्दरहित, पुद्गल रूप लिंग (हेतु) द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य, जिसके किसी खास आकार का निर्देश नहीं किया जा सकता ऐसा और चेतना गुण वाला जानो। ___ इस प्रकार यह अमूर्त है तो भी अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ होने के कारण व्यवहार दृष्टि से उसे कथञ्चित् मूर्त भी कहा जा सकता है । शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा अमूर्त और कर्मबंध की अपेक्षा मूर्त यदि उसे सर्वथा मूर्त माना जायेगा, तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। पुद्गल और उसमें भेद नहीं रहेगा । अतएव कथञ्चित् की दृष्टि से निर्धारित किया गया है। भारतीय दर्शनों में आत्मा के आकार के सम्बन्ध में मतान्तर प्रचलित हैं। न्याय-वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि आत्मा का अनेकत्व स्वीकार करते हुए आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार आकाश सर्वव्यापक है उसी प्रकार आत्मा (जीव) भी सर्वव्यापक है । उपनिषद् में आत्मा के सर्वगत और सर्वव्यापक होने का उल्लेख है। अंगुष्ठमात्र तथा अणुमात्र होने का भी निर्देश है । १. नियमसार, १३-१४ २. 'जीवो णाणसहावो जह अग्गी उह्ववो सहावेण । अत्यंतरभूदेण हि णाणेण ण सो हवे णाणी ॥', कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १७८ ३. समयसार, ४६ ४. 'सर्वव्यापिनमात्मानम्', श्वेता०, १/१६ ५. 'अंगुष्ठमानपुरुषः ।', बही, ३/१३ ६. कठो०, ६/२/२० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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