SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुभाशंसा श्री जैनेन्द्र कुमार प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना श्री देशभूषण जी महाराज के प्रति श्रद्धा-सम्मान के उपहार स्वरूप हुई है। आचार्य देशभूषण जी जैन सन्त हैं। मुद्रा से वे जैनाचार्य भले ही माने जाएँ लेकिन आज की भोगवादी संग्रहवादी प्रदर्शनवादी तृष्णात पदार्थाकांक्षी संहाराभिमुख सभ्यता के सम्मुख आचार्यश्री एक जीते जागते प्रश्नचिह्न हैं। नाना लपेटों में लिपटे संसारी मनुष्य के सामने निपट मानवता एवं आत्मता के जाज्वल्य प्रतीक हैं। ऐसे वे इस उस धर्म के नहीं प्रत्युत धर्मार्थ के प्रकाश स्तम्भ हैं । 'आचार्य देशभूषण अभिनन्दन ग्रंथ' अनायास ही जैन विषयक विश्वकोष के समान ही बन गया है। जैन अध्यात्म चिन्तन से लगाकर जैन व्यवहार, जैनाचार, इतिहास, कला, संस्कृति, साहित्य आदि सभी विषयों का इसमें समावेश हो गया है। जैन विचार के उदय और क्रमिक इतिहास का आकलन भी इसमें पाया जाता है। तत्कालीन अन्यान्य विचारधाराओं के साथ असमंजस अथवा सामंजस्य की प्रक्रिया का विवरण भी इसमें देखा जा सकता है। 'धर्म' अपने आप में एक सम्पूर्ण इकाई है। उसमें खण्ड नहीं है। इस प्रकार जीवन अखण्ड है फिर भले ही उसके कितने ही पहल अथवा आयाम हों। 'धर्म' जीवन में समग्रभाव से अन्तर्व्याप्त होने के कारण अविभाज्य है। 'धर्म' का दर्शन, ज्ञान अथवा आचार से क्या सम्बन्ध है ? कहा गया है-"न धर्मो धार्मिकैविना"। 'धर्म' धार्मिक से अलग या बाहर कहीं नहीं है । वह जानने, मानने या करने में नहीं है । उसको तो जीया ही जा सकता है, जाना, माना, किया नहीं जा सकता है। इन तीनों में वह आबद्ध नहीं है फिर अंशतः अभिव्यक्त भले ही हो। जैन तत्त्वशास्त्र का पहला सूत्र है-"सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि-मोक्षमार्गः" किन्तु इस सूत्र में मार्ग भर दर्शाया गया है। किन्तु यात्रा ही आरम्भ न हो तो मार्ग को जान लेने भर से क्या होता है। मुख्य स्थानबिन्दु अर्थात् 'सम्यग्दर्शन' से आगे यात्रा के आरम्भ में एक विशेष बात की मुझे याद आती है। जैन गुरुकुल की पांचवीं कक्षा में मैं रहा हूंगा। बताया गया 'सम्यक् दर्शन' पूर्वक ज्ञान 'सम्यक् ज्ञान' हो जाता है । अर्थात् ज्ञान अपने आप में मात्र ज्ञान ही है न वह अपने में 'सम्यक् है न 'असम्यक् । दर्शन के सम्यकत्व के साथ ही युगपत् वह निर्गुण ज्ञान सहज सम्यक् हो जाता है। यह बात तब समझ में नहीं आई थी अब इधर उसकी गहराई का पता चल रहा है। जैन विचार में ज्ञान के पांच प्रकार गिनाए गए हैं । 'मति', 'श्रुति' को सामान्यतया सब लोग जानते और व्यवहार में लाते हैं । ज्ञान के विशिष्ट रूप हैं -'अवधि' और 'मनःपर्याय' । किन्तु सचाई यह है कि इनकी गणना भी छद्मस्थ ज्ञान में ही है। ज्ञान तो है पांचवां-'केवल ज्ञान', जहां ज्ञाता ज्ञेय से पृथक् रह नहीं जाता, केवल ज्ञान ही ज्ञान-रूप में स्वयं रह जाता है। इसी को 'मुक्ति' या 'निर्वाण' कहते हैं । ज्ञान में जब तक कुछ आकर समाया रहता है तब तक वह शुद्ध नहीं है क्योंकि अनन्त नहीं है। सत्य अनन्त है और भाषा उस ओर इङ्गित मात्र कर सकती है। बांध नहीं सकती। ___ जैन धर्म को लोग अधिकांश इसलिए मानते और पहचानते हैं कि वहां 'अहिंसा' को 'धर्म' नहीं 'परम धर्म' माना गया है। 'परम' अर्थात् प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति, प्रत्येक देश-काल में वह संगत है । परिणाम में भी वह अचुक है। सामान्यतया इस अहिंसा के आग्रह को अतिवाद कह कर टाल दिया जाता है । पर गांधी जी ने इस अत्युत्कट वैज्ञानिक और व्यावसायिक-औद्योगिक युग में भी 'अहिंसा' की क्षमता को कारगर कर दिखाया। 'अहिंसा' को स्थूल कर्म के स्तर पर आसानी से मान लेंगे। मान लेंगे कि किसी को कष्ट देना, जी दुखाना, घात करना ठीक नहीं है । पर सैद्धान्तिक एवं तात्त्विक विचार के क्षेत्र में ऐसी उदारता को उचित नहीं मानेंगे । सत् और असत् के द्वन्द्व को वहां नितान्त माना जाएगा किन्तु जैनाचार्यों ने 'स्याद्वाद' और 'अनेकान्तवाद' के रूप में सत्य सम्बन्धी वादविवाद को सदा के लिए व्यक्त और निष्पन्न बता दिया। मत मान्यता आपेक्षिक ही हो सकती है। सत्यता उनकी सापेक्ष है । अपेक्षया विरोधी मान्यताओं में भी सत्य का अंश हो सकता है । भाषा अपर्याप्त होती है अतएव प्रत्येक कथन अमुक अंग की ओर से ही सही हो सकता है। सर्वाङ्गीण नहीं। जैन विचार के इस आविष्कार ने मत-मतान्तर सम्बन्धी विवाद-वितण्डा सदा के लिए निर्मूल कर दिया। आस्था का अर्घ्य For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy