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________________ है कि पुद्गल द्रव्य आपस में अवकाश देने वाले हैं। जैसे मेज पर पुस्तक। यहां पुस्तक, जो पुद्गल है, को पुद्गल द्रव्य मेज ने ही अवकाश दिया है, किन्तु मेज को अवकाश देने वाला कौन है वह ही है जो सभी आकाश को अवकाश देने वाला है। अवकाश दो प्रकार का हैलोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश वह है जहां जीव और पुद्गल संयुक्त रूप से रहते हैं तथा जो धर्माधर्मास्तिकाय और काल से भरा हुआ है। अलोकाकाश यह है जहां केवल आकाश ही आकाश है, धर्म-अधर्मद्रव्यों का अभाव होने से वहां जीव और पुद्गलों की गति नहीं है । आकाश अनन्तप्रदेशी, नित्य, अनन्त तथा निष्क्रिय है । आकाश के मध्य चौदह राजू ऊंचा पुरुषाकार लोक है, जिसके कारण आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश दो विभाग हुए हैं। धर्म और अधर्मं लोकाकाश में उसी तरह व्याप्त है, जैसे तिल में तेल ।' काल काल भी द्रव्य है । " श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार काल औपचारिक द्रव्य है। वस्तुवृत्या यह जीव और अजीव की पर्याय है। जहां इसके जीव अजीव की पर्याय होने का उल्लेख है वहां इसे द्रव्य भी कहा गया है। ये दोनों कथन विरोधी नहीं किन्तु सापेक्ष हैं । निश्चय दृष्टि में काल जीव अजीव की पर्याय है। और व्यवहार दृष्टि में यह द्रव्य है । उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है— उपकारकं द्रव्यम् वर्तना आदि काल के उपकार हैं इन्हीं के कारण यह द्रव्य माना जाता है। पदार्थों की स्थिति आदि के लिए जिसका व्यवहार होता है, वह आवलिकादि रूप काल जीव अजीव से भिन्न नहीं है, उन्हीं की पर्याय है। दिगम्बर परम्परा में काल अणु रूप स्वीकार किया गया है। प्रत्येक लोकाकाश के प्रदेश पर एक-एक कालाणु रत्नों की राशि के समान अवस्थित है। कावाणु असंख्यात है वे परमाणु के समान ही एकप्रदेशी हैं। काल द्रव्य दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार अनस्तिकाय है । श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से औपचारिक और दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से वास्तविक काल के उपकार या लिंग, पांच हैं वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य वर्तना परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व । वर्तना शब्द के दो अर्थ हैं वर्तन करना तथा वर्तन कराना। प्रथम अर्थ काल के सम्बन्ध में तथा द्वितीय अर्थ बाकी द्रव्यों के सम्बन्ध में घटित होता है। तात्पर्य यह है कि काल स्वयं परिवर्तन करता है तथा अन्य द्रव्यों के परिवर्तन में भी सहकारी होता है । जैसे कुम्हार का चाक स्वयं परिवर्तनशील (= घूमनेवाला) होता है तथा अन्य मिट्टी आदि को भी परिवर्तन कराता है उसी प्रकार काल भी है। संसार की प्रत्येक वस्तु उत्पादव्ययप्रोव्यात्मक होने से परिवर्तनशील है, काल उस परिवर्तन में निमित्त है । काल परिणाम ( द्रव्यों का अपनी मर्यादा के अनुसार भीतर प्रतिसमय जो परिवर्तन होता है उसे परिणाम कहते हैं) भी कराता है। एक देश से दूसरे देश में प्राप्ति हेतु हलन चलन रूप व्यापार किया है। परत्व का अर्थ उम्र में बड़ा, और अपरत्व का अर्थ उम्र में छोटा है ये सभी कार्य भी काल द्रव्य के हैं। नयापन पुरानापन आदि भी कालकृत ही हैं । काल के विभाग दिगम्बर परम्परानुसार काल निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। श्वेताम्बर परम्परानुसार काल चार प्रकार का है- प्रमाण-काल, यथायुर्निवृत्तिकाल, मरणकाल और अद्धाकाल । काल के द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं इसलिए उसे प्रमाण काल कहा जाता है । जीवन और मृत्यु भी काल सापेक्ष है इसलिए जीवन के अवस्थान को यथायुर्निवृति-काल और उसके अन्त को मरण काल कहा जाता है। सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्ध रखने वाला अद्धा काल कहलाता है। काल का प्रधान रूप अद्धा काल ही है। शेष तीनों इसी के विशिष्ट रूप हैं । अद्धा काल व्यावहारिक है। वह मनुष्य लोक में ही होता है इसीलिए मनुष्य-लोक को समय-क्षेत्र कहा जाता है । निश्चय काल जीवअजीव का पर्याय है । वह लोक अलोक व्यापी है, उसके विभाग नहीं होते। समय से लेकर पुद्गल परावर्त तक के जितने विभाग हैं वे सब अद्धा काल के हैं। इसका सर्वसूक्ष्म भाग समय कहलाता है जो अविभाज्य होता है। इसकी प्ररूपणा कमल पत्रभेद और वस्त्र विदारण के द्वारा की जाती है । मन्दगति से एक पुद्गल परमाणु को लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना समय लगता है उसे एक 'समय' कहते हैं । इस दृष्टि से जैन धर्म की समय की अवधारणा आधुनिक विज्ञान के बहुत समीप है । १९६८ की परिभाषा के अनुसार सीजियम धातु नं० १३३ के परमाणुओं के ९१९२६३१७७६ कम्पनी की निश्चित अवधि कुछ विशेष परिस्थितियों में एक सेकण्ड के बराबर होती है। " १. उदाहरण मूल ग्रन्थों में नहीं है। २.४/१२ ३. जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ० १६३ ४. तत्वार्थसार, ३/४४ ५ तत्वार्थसूत्र ५।२२ ६. प्रस्तुत शीर्षक में वर्णित सामग्री, 'जैन दर्शन मनन और मीमांसा' के आधार पर है। : ७. द्रष्टव्य, नवनीत, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, जून १९८०, पृ० १०६ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only ६३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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