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________________ उपचार से ही कहा जाता है। क्योंकि परमाणु सत्-स्वरूप है, ध्रौव्य है, अत: उसकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। परमाणु पुद्गल को स्वाभाविक दशा है। दो या अधिक परमाणु मिलने से स्कन्ध बनते हैं, अतः परमाणु स्कन्धों का कारण है। उपचार से कार्य भी इस प्रकार है कि लोक में स्कन्धों के भेद से परमाणु की उत्पत्ति देखी जाती है। इसी कारण आचार्य उमास्वामी ने कहा है-भेदादणुः' अर्थात् अणु भेद से उत्पन्न होता है, किन्तु यह भेद की प्रक्रिया तब तक चलनी चाहिए जब तक स्कन्ध द्वयणुक न हो जाए। स्कन्धों की उत्पत्ति स्कन्धों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उमास्वामी ने तीन कारण दिए हैं-१. भेद से, २. संघात से और ३. भेद-संघात (दोनों) से। १. भेद से—जब किसी बड़े स्कन्ध के टूटने से छोटे-छोटे दो या अधिक स्कन्ध उत्पन्न होते हैं, तो वे भेदजन्य स्कन्ध कहलाते हैं। जैसे, एक ईंट को तोड़ने से उसमें से दो या अधिक टुकड़े होते हैं। ऐसी स्थिति में वे टुकड़े स्कन्ध हैं तथा बड़े स्कन्ध टूटने से हुए हैं, अत: भेदजन्य हैं । ऐसे स्कन्ध द्वयणुक से अनन्ताणुक तक हो सकते हैं । २. संघात से--संघात का अर्थ है जुड़ना । जब दो परमाणुओं अथवा स्कन्धों के जुड़ने से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है तो वह संघातजन्य उत्पत्ति कही जाती है । यह तीन प्रकार से सम्भव है- (अ) परमाणु+परमाणु (आ) परमाणु+स्कन्ध (इ) स्कन्ध+स्कन्ध । ये भी द्वयणुक से अनन्ताणुक तक हो सकते हैं। ३. भेद संघात (दोनों) से- जब किसी स्कन्ध के टूटने के साथ ही उसी समय कोई स्कन्ध या परमाणु उस टूटे हुए स्कन्ध से मिल जाता है तो वह स्कन्ध 'भेद तथा संघातजन्य-स्कंध' कहलाता है, जैसे टायर के छिद्र से निकलती हुई वायु उसी क्षण बाहर की वायु से मिल जाती है। यहां एक ही काल में भेद तथा संघात दोनों हैं। बाहर से निकलने वाली वायु का टायर के भीतर की वायु से भेद है तथा बाहर की वायु से संघात । ये भी द्वयणुक से अनन्ताणुक तक हो सकते हैं। पुद्गल की पर्याय शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्य संस्थानभेदतमश्छायातपोधोतवन्तश्च' अर्थात् वे पुद्गल शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूल्य, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, आतप और उद्योत वाले होते हैं। शब्द-शब्द को अन्यान्य दर्शनों, यथा वैशेषिक आदि ने आकाश का गुण माना है किन्तु जैनदर्शन में इसे पुद्गल की ही पर्याय स्वीकार किया गया है। आज के विज्ञान ने भी शब्द को पकड़कर ध्यनि-यन्त्रों, रेडियो, ग्रामोफोन आदि से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजकर जैनमान्यता का ही समर्थन किया है । पुद्गल के अणु तथा स्कन्ध भेदों की जो २३ अवांतर जातियां स्वीकार की गयी हैं उनमें एक जाति भाषा वर्गणा भी है। ये भाषा वर्गणाएं लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं । जिस वस्तु से ध्वनि निकलती है, उस वस्तु में कम्पन होने के कारण इन पुद्गल वर्गणाओं में भी कम्पन्न होता है, जिससे तरंगें निकलती हैं। ये तरंगें ही उत्तरोत्तर पुद्गल की भाषा वर्गणाओं में कम्पन पैदा करती हैं, जिससे शब्द एक स्थान से उद्भूत होकर दूसरे स्थान पर पहुंच जाता है। विज्ञान भी शब्द का वहन इसी प्रकार की प्रक्रिया द्वारा मानता है। शब्द भाषात्मक और अभाषात्मक के भेद से दो प्रकार का है । भाषात्मक शब्द पुन: अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक के भेद से दो प्रकार का हो जाता है। संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी आदि भाषाओं के जो शब्द हैं, वे अक्षरात्मक शब्द हैं तथा गाय आदि पशुओं के शब्द-संकेत अनक्षरात्मक शब्द हैं । अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैससिक के भेद से दो प्रकार का है। मेघ आदि की गर्जना वैनसिक शब्द है। प्रायोगिक चार प्रकार का है । (क) तत-मृदंग, ढोल आदि का शब्द, (ख) वितत–वीणा, सारंगी आदि वाद्यों का शब्द, (ग) घन-- झालर, घण्टा आदि का शब्द, (घ) सौषिर या सुषिर-शंख, बांसुरी आदि का शब्द। ये भेद एक रेखाचित्र द्वारा निम्न प्रकार से देखे जा सकते हैं। १. तत्वार्थ सूत्र, ५/२७ २. 'भेदसंघातेभ्यः उत्पद्यन्ते', तत्वार्थसून, ५/६२ ३. तत्वार्थसूत्र, ५/२४ ४. 'शब्दगुणकमाकाशम्', तर्कसंग्रह, पृ० ४३ ५. तत्वार्थसूत्र (पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री कृत व्याख्या), पृ० २३० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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