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________________ आचारांग में-(१) अनुवीचिभाषण (२) क्रोधप्रत्याख्यान (३) लोभप्रत्याख्यान (४) अभय (भयप्रत्याख्यान) (५) हास्यप्रत्याख्यान। समवायांग में-(१) अनुवीचिभाषण (२) क्रोधविवेक (क्रोध का परित्याग) (३) लोभविवेक (लोभ का परित्याग) (४) भयविवेक (भय का त्याग) (५) हास्यविवेक (हास्य का त्याग)। प्रश्नव्याकरण में-(१) अनुचिन्त्यसमितिभावना (२) क्रोधनिग्रहरूप क्षमाभावना (३) लोभविजयरूप निर्लोभभावना (४) भयमुक्तिरूप धैर्ययुक्त अभयभावना (५) हास्यमुक्तिवचनसंयमरूप भावना । चरित्रप्राभूत' में - (१) अक्रोध (२) अभय (३) अहास्य (४) अलोभ (५) अमोह । प्रश्नव्याकरण की भांति ही तत्वार्थसूत्र की टीकाओं सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में भी क्रम मिलता है। इन पांचों भावनाओं में जिन कारणों से सत्य की साधना में स्खलनाएं हो सकती हैं उनसे अलग-थलग रहने के लिए प्रेरणा प्रदान की गई है। प्रतिपल-प्रतिक्षण चिन्तन करने से साधक में वे संस्कार बद्धमूल हो जाते हैं, जिससे वह किसी भी समय और परिस्थिति में असत्य का उपयोग नहीं कर सकता। हम यहां प्रश्नव्याकरण को मूल आधार मानकर ही उन भावनाओं पर चिन्तन कर रहे हैं। (१)अनुचिन्त्य-समिति-भावना अनुचिन्त्य अथवा अनुविचिन्त्य से तात्पर्य है सत्य के विभिन्न पहलुओं पर पुन: पुनः चिन्तन कर बोलना । जब तक जीवन के कणकण में एवं मन के अणु-अणु में सत्य पूर्णरूप से रम नहीं जाता, वहां तक सत्य की साधना व आराधना पूर्ण नहीं होती। सत्य की महिमा और गरिमा का तभी पता चलता है जब तक साधक मनोयोगपूर्वक उस पर गहराई से चिन्तन करता है । सत्य के महत्व को समझकर साधक उसके बाधकतत्वों का परित्याग करता है। सत्य के बाधक तत्व ये हैं (१) अलीक वचन—जो बात नहीं है उसे कहना, स्वयं की प्रशंसा करने के लिए और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए झूठ बोलना। (२) पिशुन वचन अथवा चुगली-नारद की भांति एक-दूसरे के विपरीत बात कहकर लड़ाना । एक राजस्थानी कवि ने चुगल खोर का वर्णन करते हुए कहा-वह बहुत ही खतरनाक प्राणी है, जिसके कारण सरसब्ज बाग वीरान और शहर उजड़ जाते हैं। पैशुन्य ऐसा चालाक तस्कर है जो सत्य रूपी धन को चुरा लेता है। (३-४) कठोर वचन तथा कटु वचन--ये दोनों भी सत्य के शत्रु हैं। हित की बात भी कटु शब्दों में नहीं कहनी चाहिए। दूध को एक मिट्टी के बर्तन में रखकर पिलाया जाय और उसी दूध को चमचमाते हुए चांदी या स्वर्ण-पात्र में पिलाया जाय तो पीने वाले को अधिक आह्लाद किसमें होगा ? स्वर्ण या चांदी के पात्र में। वैसे ही सत्य को भी मधुर शब्दों में कहा जाय तो वह अधिक प्रभावशाली होगा। (५) चपल वचन-बहुत ही उतावली से, जल्दबाजी से बिना सोचे बोलना । व्यवहारभाष्य में आचार्य ने लिखा है-अन्धा व्यक्ति जैसे अपने साथ आंख वाले व्यक्ति को रखता है, वैसे ही वाणी जो अन्धी है उसे अपने साथ बुद्धिरूपी नेत्र रखना चाहिए अर्थात् पहले अच्छी तरह बुद्धि से सोचकर फिर वाणी का प्रयोग करना चाहिए। साधक को सत्य के इन पांच बाधक तत्वों से बचना चाहिए । यहां पर यह स्मरण रखना होगा कि आचारांग, समवायांग और प्रश्नव्याकरण में उल्लिखित 'अनुवीचि भाषण' या 'अनुविचिन्त्य १. 'कोह भय हास लोहा मोहा विवरीय भावणा चेव । विदियस्स भावणा ए पंचेव य तहा होंति ॥', आचार्य कुन्दकुन्द : षट्प्राभृत में चारित्नप्राभृत, ३२ २. तत्त्वार्थसूत्र , ७/३ की टीकाएं ३. 'अलिय-पिसुण-फरस- कडुय-चवल वयण परिरक्खणठ्ठयाए', प्रश्नव्याकरणसूत्र, संवर द्वार, सातवाँ अध्ययन ४. 'पुवि बुद्धिए पामेता तत्तो वक्कमुदाहरे । मचक्खुओ व नेयारं बुद्धिमन्नेसए गिरा ॥', व्यवहारभाष्य, पीठिका-७६ जैन दर्शन मीमांसा ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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