________________
पुत्र को भी अरक्षित छोड़ देती है..."इत्यादि। फिर परोपकार विषयक अपनी बात पर बल देने के लिए स्व० मैथिलीशरण गुप्त की कविता की निम्न पंक्तियां उद्धृत करते हैं
आभरण इस नर बेह का बस एक पर-उपकार है, हार को भूषण कहे उस नर को शत धिक्कार है। स्वर्ण की जंजीर बांधे श्वान फिर भी इवान है, धूलि धूसर भी करी पाता सदा सम्मान है।
फिर इस पद का सरल भाषा में अर्थ बता कर वे अपने मत की दृष्टि से विषय को बांधते हुए कहते हैं-"अर्हन्त भगवान् इसी कारण जगत्पूज्य हैं कि अपने दिव्य उपदेश द्वारा समस्त जीवों को अनुपम लाभ पहुंचाते हैं । जनता से कुछ नहीं लेते..." इत्यादि। फिर इस बात को सूक्ति मुक्तावली के इस श्लोक द्वारा स्पष्ट करते हुए प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं
"आयुदीर्घतरं व पर्वरतरं गोनं गरीयस्तरं । वित्त भूरितरं बल बहुतरं स्वामित्वमुच्चस्मरम् ।। आरोग्य विगतान्तरं त्रिजगति इलाध्यत्वमत्येतरं । संसाराम्बुनिधि करोति सुतर चेतः कृपाद्रीन्तरम् ।।"
इस श्लोक का अर्थ बताने के बाद देशभूषण जी महाराज शिशप गांव के मृगसेन धीवर और उसकी स्त्री घंटा की कहानी सुनाते हैं कि किस प्रकार तपस्वी मुनि जयधन की बात मानकर वह धीवर बिना मछली पकड़े घर आया, किस प्रकार पत्नी के रोष से निष्कासित उसे मन्दिर में सर्प ने काटा, किस प्रकार उसकी पत्नी को भी उसी सर्प ने काटा और दोनों काल कवलित हुए। फिर मछली को जीवनदान देने के कारण किस प्रकार उज्जयिनी में मृगसेन धीवर “सोमदत्त' बनकर आया और किस प्रकार उसकी स्त्री घंटा “बिषा" नामक राजकन्या बनी, किस प्रकार सोमदत्त मृत्यु से चार बार बचा (क्योंकि उसने मछली को चार बार जल में छोड़कर जीवनदान दिया था) और बिषा से उसकी शादी होकर उसे राज्य, सुख और वैभव की प्राप्ति हुई।
इस एक ही प्रवचन के उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि परम श्रद्धेय देशभूषण जी महाराज सभी धर्म-शास्त्रों से सार ग्रहण करने में संकोच नहीं करते और परस्पर ताल-मेल द्वारा अपने मत को प्रतिष्ठित करते हैं। उनका दृष्टिकोण उदार है और उन्हें "स्वधर्म" की लीक पर चलते हुए भी जगत् की व्यावहारिकता का सदैव ध्यान रहता है।
महाराज जी की विलक्षण प्रतिभा के दिग्दर्शन पृष्ठ दो पर "जैन धर्म प्राणी मात्र का धर्म" प्रसंग में भी होते हैं। अपने धर्म को प्राणी मात्र का धर्म सिद्ध करने के लिए उन्होंने अन्य धर्मों के आचार्यों की भांति शब्द-जाल में उलझाने की चेष्टा न करके अहिंसा परमोधर्मः कहकर जैन धर्म की मूल विशिष्टता का विश्लेषण किया। कबीर के निम्न दोहे को भी उन्होंने स्थान देकर कहा
"हिन्दू कहता राम हमारा, मुसलमान रहमान हमारा।
आपस में दोउ लड़ते मरते, मरम नहिं कोउ जाननहारा॥" फिर वे कहते हैं-..."किसी का भी धर्म श्रेष्ठ नहीं है। अहिंसा परमो धर्मः" इत्यादि।
"शक्ति अनुसार तप" (पृष्ठ १२४) विषयक प्रवचन में प्रवक्ता महाराज की चुटीली व बोलचाल की भाषा का अच्छा समावेश है। पृष्ठ १२६ में— “यदि कोई देव उपवास करना चाहें तो "भोजन स्वयमेव हो जाया करता है।" अथवा उसी पृष्ठ पर अगले पैरा में".''अतः जिस तरह घोड़े को खिलाते-पिलाते रहो, नियन्त्रण-कंट्रोल न किया जावे तब तक इन्द्रियां भी इत्यादि" ऐसे अंश हैं जिन्हें साधारण पाठक भी आसानी से समझ कर तदनुरूप अभ्यास कर सकते हैं।
इसी प्रकार के अंश जो कि सर्वधर्म समभाव, 'अहिंसा परमो धर्मः' तथा एक मौलिक मानव-धर्म की अप्रत्यक्ष निदर्शना करते हैं, पुस्तक में कई स्थलों पर देखे जा सकते हैं । पुस्तक सभी मानव-समुदायों के लिए उपयोगी है; यह निर्विवाद कहा जा सकता है।
५८
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org