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मुक्त हो जाता है। इसके स्मरण से मनुष्य के शुभ कर्म का उदय होता है जिससे कर्म निर्जरा होकर सभी कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होते जाते हैं।
___ इस अपराजित मंत्र में ३५ अक्षर हैं जिनमें पंच परमेष्ठियों का स्वरूप निहित है, यह पाप बिनाशक और मनोकामनापूरक हैं। यद्यपि इस मन्त्र में किसी भी कामना की अभिव्यक्ति नहीं होती, फिर भी आराधक इसे सर्वसिद्धि दाता मानते हैं । मंत्र इस प्रकार है
'णमो अरिहंताणं, णमोसिद्धाणं, णमो आइरियाण। णमो उम्झयाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ।
इसमें पांचों परमेष्ठियों को नमन कर उनके स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है—प्रस्तुत ग्रंथ में इसका विवेचन विस्तार से किया गया है। मंत्र शास्त्र की दृष्टि से प्रस्तुत मंत्र विश्व के समस्त मंत्रों में अलौकिक है जो पाप विनाशक तो है पर साथ ही मंगलकारी होने के साथ कर्मों को जड़मूल से नष्ट करने वाला है। इस मंत्र का प्रयोग जैनाचार्यों ने सदैव निष्काम भाव से कर्मों की वज्र शृंखलाओं को तोड़ने के लिए ही किया। तंत्रादि की असीम शक्ति से परिचित होते हुए भी सांसारिक सिद्धि के लिए इसका उपयोग नहीं किया। समस्त प्राणी जगत् के प्रति सद्भावना रखने के कारण ही कभी इस मंत्र का दुरुपयोग नहीं किया।
प्रस्तुत ग्रन्थ के दूसरे अधिकार में मानव चरित्र के उत्थानका तीन प्रमुख गुणों का 'रतनत्रय' के अन्तर्गत विशद विवेचन किया गया है। ये गुण हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक चारित्र। मानव जीवन का उद्देश्य इन तीन रत्न गुणों का अपने चरित्र में विकास करना ही है। तीनों की सिद्धि मुक्तिदायिनी है। कर्म बन्धनों से मुक्ति भी इन्हीं की उपलब्धि से संभव है। आत्मा को जन्म-जरा-मरण की त्रिविध व्याधियों से छूट कर अविनाशी सुख प्राप्त करने के लिए 'रत्नत्रय' की आराधना और उपासना में संलग्न रहना जरूरी है, यही उसकी अमूल्य निधि है।
वस्तुत: इस ग्रन्थ में जैन धर्म और उसके सिद्धान्तों का विशद विवेचन अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक शैली में किया गया है । लोक रुचि के अनुकूल ही अनेक पुराणसम्मत कथानकों के सहयोग से विषय को सुरुचिपूर्ण बनाने का श्रेय इस ग्रन्थ के संपादक जी को है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र को सम्पूर्ण और सम्यक् बनाने के लिए मनुष्य को किस प्रकार कठिन साधना और तपश्चर्या का अनुसरण करना पड़ता है। धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है जिसके बिना ज्ञान और चारित्र भी पूर्णतया को प्राप्त नहीं कर सकते। यह मोक्ष रूपी महल की पहली सीढ़ी है। जब मनुष्य की आंखों के आगे से मोह-माया का मिथ्या भ्रम का आवरण हट जाता है तो सत्य के आलोक में उसकी दृष्टि सम्यक होने लगती है। वह हर वस्तु के सच को जानकर अपने को तटस्थ प्रकृति का बनाने का प्रयास करने लगता है। उसे न तो सुख में हर्ष और न दुख में विषाद की अनुभूति होती है। किसी जीव की हिंसा या अहित का भाव उसके मन में नहीं आता वरन् निःस्वार्थ भाव से वह अपनी ही आत्मा के परिष्कार में लगा रहता है। यह समदृष्टि भव-सागर को पार करने में सहायक है। पाप रूपी वृक्ष को काटने वाला तीक्ष्ण कुठार भी यही है । मोह रूपी अंधकार के नष्ट होने पर ही सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति होती है और तभी व्यक्ति सचरित्र का विकास करता है। पाप एवं भोगविलास से निवृत्ति और आत्मपरिष्कार में प्रवृति ही सम्यक् चारित्र है।
मानव चरित्र की अनमोल निधि स्वरूप इन 'रत्नत्रय' गुणों के विवेचन के अतिरिक्त इस ग्रंथ में २४ तीर्थंकरों के परिचय, धर्मपथ का अनुसरण करने वाले अनेक महापुरुषों और धर्मात्माओं के जीवन संदर्भ दिए गए हैं। ग्रंथ में धर्म के यथार्थ स्वरूप और एक सच्चे साधक के गण-दोषमय चरित्र की व्याख्या करके जन सामान्य को भी सत्पथ पर चलने की प्रेरणा दी गई है। इस ग्रंथ के प्रणयन का मूल उद्देश्य जैन धर्म का प्रचार करना, जैन तथा जैनेतर लोगों में धर्म प्रभावना बढ़ाना होने के साथ यह भी रहा है कि जैन धर्म विषयक सम्पूर्ण सामग्री प्रस्तुत करने वाला एक सम्यक् ग्रंथ प्रकाशित किया जाये जिसमें जिनवाणी का यथार्थ स्वरूप मिल सके तथा अधिकाधिक लोग इस धर्म के अनुयायी बन कर आत्मलाभ कर सकें।
इस ग्रन्थ को प्रकाश में लाने के लिए महान् सन्त, युगपुरुष, आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज का सम्पूर्ण जैन समाज चिर ऋणी रहेगा। उन्होंने जीवन को जिस कर्मठता, सृजनशीलता से शोध साधना में बिताया है और जैन धर्म के शाश्वत सत्यों को विश्वव्यापी बनाने के लिए जो साहित्य-रत्न जैन संस्कृति को दिए हैं वे अनुपम हैं। अव्यवस्था और विषमताओं के इस युग में आत्मप्रकाश की मशाल लिए जैन धर्म को लोकप्रियता और व्यापकता दिलाने के लिए आचार्य श्री ने जो स्तुत्य प्रयास किए हैं वे अविस्मरणीय रहेंगे।
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