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________________ यह नमस्कार मन्त्र संसार में सारभूत है। तीनों लोकों में इसकी तुलना के योग्य कोई दूसरा मन्त्र नहीं है। यह समस्त पापों का शत्रु है। संसार का उच्छेद करने वाला है। विषम विष को दूर करने वाला है। कर्मों को जड़ मूल से नष्ट करने वाला है । अतएव सिद्धि का देने वाला है, मुक्ति सुख का जनक है और केवलज्ञान का समुत्पादक है। अतएव इस मन्त्र का बार-बार जाप करना चाहिए क्योंकि यह कर्म परम्परा का विनाशक है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम अधिकार के ६७ पृष्ठों में पंचपरमेष्ठियों का पावन स्मरण, अरहन्त भगवान् में न उत्पन्न होने वाले अष्टादश दोष, अरहन्त भगवान् के ४६ गुण, विशिष्ट गुणों के कारण जिन भगवान् के १००८ नामों का पवित्र स्मरण एवं भक्तिपूर्वक वन्दन किया गया है। प्रथम अधिकार के शेष ६८ से ८५ तक के पृष्ठों में आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी एवं साधु परमेष्ठी के स्वरूप का वर्णन करते हुए साधु धर्म की आचरण संहिता के महत्त्वपूर्ण अंगों यथा षडावश्यक, पाँच महाव्रत, पंच समिति, छियालीस दोप, बत्तीस अन्तराय, चौदह मलदोष एवं पंचेन्द्रिय निरोध का विशद रूप से वर्णन, उपाध्याय परमेष्ठी एवं साधु परमेष्ठी के प्रसंग में जैनधर्म शास्त्रों के पावन अंगों एवं समर्थ साधुओं में दृष्टि होने वाली ऋद्धियों का विस्तारपूर्वक विवेचन भी किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के 'रत्नत्रय' नामक द्वितीय अधिकार में जैन आचार, दर्शन, तत्त्व चिन्तन एवं सृष्टि संबंधी विषयों-सम्यग्दर्शन, जीवतत्त्व, संसारत्व, सिद्धत्व, सात तत्त्व, षोडश भावना, दशधर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, बाईस परिषह, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, श्रावक की तिरेपन क्रिया और लोक के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। द्वितीय अधिकार में तिरेसठ शलाका महापुरुषों (२४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ६ नारायण, बलभद्र, ६ प्रतिनारायण), ६ नारद, चौबीस कामदेव और समर्थ आचार्य अकलंक देव, कुन्दकुन्द इत्यादि का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया है। महापुरुषों के जीवन की प्रमुख घटनाओं का कथा रूप में उल्लेख भी किया गया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ के प्रेरक एवं रोचक प्रसंगों को मार्मिक चित्रों के रूप में यथावत् प्रस्तुत करके इसे जन-जन के लिए उपयोगी बनाने का आचार्य श्री ने सफल प्रयास किया है। इस ग्रन्थ के सम्पादन में रस-निमग्न होकर आचार्य श्री ने अपना प्राप्य अर्थात् मुक्तिद्वार का रास्ता पा लिया था। किन्तु समर्थ आचार्यों को युगधर्म का निर्वाह भी करना पड़ता है। इसी कारण आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन के समय 'दो शब्द' में अपने मनोभाव को प्रकट करते हुए कहा था, "णमोकार ग्रन्थ पाठकों को देते हुए परम आनन्द का अनुभव हो रहा है। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रन्थ के पठनपाठन और मनन-चिन्तन से सभी पाठकों को लाभ होगा और वे जैनधर्म के सिद्धान्तों को भली प्रकार समझ सकेंगे। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में हमारी भावना यही रही है।" आशा है, जैन समाज आचार्य श्री द्वारा संपादित इस महान् कृति के भावों को जीवन में उतारकर अपने मनुष्य जन्म को सफल बनायेंगे। सृजन-संकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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