SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैराग्य प्रतिपादक होते हुए भी 'रत्नाकर शतक' का अध्यात्मवाद निराशावाद से पुष्ट या प्रेरक नहीं है। इसमें संसार से घबड़ा कर उसे नश्वर या क्षणिक नहीं बताया गया। अपितु वस्तुस्थिति का प्रतिपादन करते हुए आत्मस्वरूप का विवेचन किया गया है। संसार के मनोज्ञ पदार्थों का अन्तरंग एवं बहिरंग का साक्षात्कार कराते हुए उनकी वीभत्सता दिखाई है । कवि की मान्यता है कि मोह के कारण संसार के पदार्थ बाहर से सुन्दर दिखाई देते हैं । मोह के दूर होते ही इनका वास्तविक रूप सामने आ जाता है । अज्ञानी या मोहित व्यक्ति ही भ्रमण रागी, द्वेषी, क्रोधी, लोभी, मायावी आदि बने रहकर अपने को सीमित संकीर्ण किए रहते हैं। यद्यपि ये सारी स्थितियां मनुष्य की विभाव पर्यायी हैं, विकृतिजन्य हैं, प्रकृति जन्य नहीं । अतः 'रत्नाकर शतक' का अध्यात्म निराशावाद का पोषक न होकर, चेतना पर आवृत कृत्रिम आशा-निराशा को दूर कर आत्मा की सहज ज्योति को उद्भासित करता है। रचना में संवाद शैली का आश्रय लिया गया है। कवि रत्नाकराधीश्वर से जिनेन्द्र भगवान को सम्बोधन कराकर संसार, स्वार्थ, मोह, माया, क्रोध, लोभ, मान, ईर्ष्या, घृणा आदि के कारण प्राणी की दुर्दशा का वर्णन करते हुए आत्मतत्त्व की श्रेष्ठता बताता है। जीवन विशेषतः मनुष्य जीवन अनादि काल से रागद्वेषों के आधीन रहने के कारण उत्तरोत्तर कर्मार्जन करता रहा है। जब उसे 'रत्नत्रय' की अनुभूति उपलब्धि हो जाती है, तभी वह कर्म सागर से सन्तरित हो पाता है। इस विचार को कवि ने सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। लेकिन, तत्त्व ज्ञान जनित ऐसे गूढ़ विषय को भी कवि ने सम्बोधन-संवाद शैली में सरल ग्राह्य रूप में प्रस्तुत किया है। शब्द विन्यास ने विषय की निगूढ़ता को अर्थ-बोध की सतह पर लाकर ग्राह्य बनाया है । कवि सर्वत्र इस बात के लिए जाग के दिखाई देता है कि सहृदय मनुष्य की चित्तवृत्ति रस दशा की उस भावभूमि पर पहुंचने में आहत न होकर आत्मा की परम तृप्ति में सहायक हो। कवि की सीगत मौलिकता यही है कि अनुवाद के माध्यम से भी पाठक श्रोता रसास्वादन को अनुकूल पाते हैं । यद्यपि, संस्कृत में भर्तृहरि ने भी शतक त्रय की रचना की है, परन्तु उसमें सवाद शैली की ऐसी पीठिका नहीं है। इसमें तो भावधारा स्वाभाविक एवं निश्चित क्रम में प्रवाहित हुई है, जिसमें अन्विति सर्वत्र दृष्टव्य है । इसलिए मुक्तक काव्य होते हुए भी 'रत्नाकर शतक' में प्रस्तुत आत्मभावन ग्राह्य है। इसका कारण यह है कि कवि का लक्ष्य चेतना को चिरन्तन अक्षय सुख प्राप्ति कराना है। यह अक्षय सुख ही रत्नत्रय की उपलब्धि में सहायक होकर आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करता हुआ वृत्ताकार बन जाता है। ऐसे सुख का अनुभव ज्ञानजन्य विवेक से, आत्मिक भेद-विज्ञान के द्वारा, शरीर और आत्मा के भेद के अनुभव के कारण जो शम-शान्त रस का भावन होता है, वह काव्यशास्त्रीय शान्तरस की सीमा में परिसीमित नहीं हो पाता । 'रत्नाकर शतक' की भाषा संस्कृत मिश्रित पुरातन कन्नड़ है। इसमें कुछ शब्द अपभ्रंश और प्राकृत के भी हैं। कवि ने इन शब्द रूपों को कन्नड़ की विभक्तियों को जोड़कर प्रयोगानुकूल बनाया है। संस्कृत शब्दों को कन्नड़ी जामा पहनाने में ध्वनि परिवर्तन के नियमों का पूरा उपयोग किया गया है। फिर भी, कृदन्त और तद्धित प्रत्यय प्रायः संस्कृत के ही हैं। इस प्रकार भाषा को परिमार्जित करने में अपने afa - कौशल का उपयोग किया है। इस शतक की रचना मन्तेभ विक्रीड़ित और शार्दूल विक्रीडित छन्दों में हुई है। इसकी रचना -शैली प्रसाद और माधुर्य गुण सम्पन्न है। आचार्य देशभूषण जी ने इसके वर्ण्यविषय एवं शैली के सम्बन्ध में लिखा है- 'रत्नाकर शतक के प्रत्येक पद्य में अंगूर के रस के समान मिठास विद्यमान है। इसमें शान्त रस का सुन्दर परिपाक हुआ है । कवि ने आध्यात्मिक और नैतिक विचारों को लेकर फुटकर पद्य रचना की है। वस्तुतः यह गेय काव्य है । इसके पद्य स्वतंत्र हैं, एक का सम्बन्ध दूसरे से नहीं है। संगीत की लय में आध्यात्मिक विचारों को नवीन ढंग से रखने का यह एक विचित्र क्रम है।' ( - अभिमत, पृ० १२ ) आचार्य देशभूषण जी द्वारा सम्पादित, अनुवादित एवं व्याख्यायित समीक्ष्य कृति 'रत्नाकर शतक' को पढ़कर यह सप्रमाण कहा जा सकता है कि आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत् योग प्रदान किया है। इसके प्रकाशन से जहां एक ओर तो कन्नड़ भाषा का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत हुआ है, वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषी जनता का अन्तरप्रान्तीय भाषा-प्रवेश हुआ है। इसके लिए लड़ ही नहीं हिन्दी संसार आचार्य रत्न के प्रति कृतज्ञ है। राष्ट्रभाषा के राष्ट्रीय स्वरूप को पुष्ट एवं समृद्ध करने के लिए यह परमावश्यक है कि अनेकानेक भारतीय भाषाओं का श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी में आए। और जब यह कार्य मनीषी चिन्तक आचार्य देशभूषण जी महाराज जैसे अध्यात्म एवं संस्कृति के स्तम्भ सम्पन्न करते हैं तो भाषा का गौरव और अधिक बढ़ जाता है। ऐसा कार्य भाषा ही नहीं, राष्ट्र को एकरसता में निमज्जित कराने का सुन्दर सुयोग भी प्रदान करता है । समीक्ष्य कृति के सम्पादन टीका व्याख्या के द्वारा एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह भी हुआ है कि जैनवाङ्मय का प्रसार क्षेत्र व्यापक बना है। आचार्यरत्न ने अपने आध्यात्मिक सांस्कृतिक योगदान में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य यह किया है कि इन्होंने किसी भी भाषा विशेष की प्रभुसम्पन्नता जनित दासता को स्वीकार नहीं किया। देशभूषण जी ने कन्नड़ भाषी होते हुए भी अपने उपदेश की भाषा हिन्दी ही बनायी है। आपका उद्देश्य रहा है कि जनता की भाषा में ऋषि-मुनि परम्परा के ज्ञानानुभव को जनता तक पहुंचाना। यद्यपि, जैन परम्परा में यह मान्यता है कि 'दिव्य ध्वनि' अर्धमागधी में प्रकट हुई थी। यह ध्वनि-भाषा निरक्षरी मानी गई है, जिसे देव, मनुष्य एवं तिर्यंच योनि के प्राणी अपनी भाषा में समझ लेते हैं । अतः वैखरी भाषा तो मात्र भाव-विचारों की वाहिका है । पूर्व जैन साहित्यकारों ने साहित्य निर्माण के लिए यह निष्कर्ष दिया है कि तीर्थकरों के उपदेश सभी लोगों के पास उनकी ही भाषा में पहुंचने चाहिए। और ऐसा करने से स्वयं ही भाषा दासता अतिक्रमित होती रहती है । शायद इसीलिए संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के समान ही, सृजन-संकल्प ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy