SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तन्मात्म गुरे ब्रह्मवेसींटा ब्रह्मदु । त्पन्न दन्नवे ब्राह्मणान्न ।। भिन्नार्थ दोलगाद सुखवे शूदन्न। बुन्नतर्नेदु सिक्कुबनो ।। आत्मा का नाम ही ब्रह्म है । इसलिए निजात्म गुरु ही ब्राह्मण है । उसी ब्रह्म से उत्पन्न हुआ अन्न ब्राह्मण अन्न कहलाता है। भिन्नार्थ सुख को उत्पन्न करने वाला अन्न ही शूद्रान्न है। इस प्रकार से दोनों अन्नों को भिन्न-भिन्न मानकर भिन्न-भिन्न रूप से अर्पण करने वाले मुनि को अन्न दान देने वाले श्रावक धन्य नहीं हैं क्या ? अवश्य ही हैं। ___ मुनियों में वैराग्य और मुक्ति की भावना को वृद्धिगत करने वाला परिश्रम से अजित सात्त्विक अन्न ही साधु की तपश्चर्या में सहायक होता है और आहारदान देने वाले श्रावक एवं आहार दान लेने वाले मुनि दोनों को ही कृतार्थ कर देता है। आचार्यरत्न जी २०-२१ वर्ष की उम्न में अकेले दक्षिण भारत से श्री सम्मेदशिखर जी की संघयात्रा में साधुओं को आहारदान देकर और श्री सम्मेदशिखर जी की तलहटी में एक साथ पांच मुनियों को पड़गाह कर अपने को धन्य समझते थे और आज भी श्रद्धा से प्राप्त आहारदान को ग्रहण कर अपने को कृतार्थ मानते हैं। वास्तव में आहारदान ही एक ऐसी प्रक्रिया है जिसने साधु एवं श्रावक के संबंधों को शताब्दियों से जोड़ रखा है। अपनी साधना के चरम सोपानों को प्राप्त करने के लिए महामुनियों को भी शरीर की स्थिति को कायम रखने के लिए श्रावकों का आश्रय लेना पड़ता है। यही क्षण किसी भी श्रावक के जीवन के स्वर्णिम एवं प्रेरणादायी क्षण होते हैं । आचार्य श्री ने एक श्रावक एवं साधु के रूप में इन क्षणों को भोगा है। सम्राट भरत ने अपनी दूरदर्शिता से यह अनुभव किया कि धर्म के शासन की स्थापना के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी मण्डल को एक ध्वज के नीचे संगठित करना चाहिए। राजतन्त्र की सुख-सुविधाओं को त्यागकर उसने भारतीय इतिहास में सम्पूर्ण पृथ्वी मण्डल को एक शासन के अन्तर्गत लाने का सर्वप्रथम विजय अभियान किया। अपने इस विजय अभियान में उसने पृथ्वी के समस्त राजाओं को विजित कर चक्रवर्ती सम्राट का विरुद ग्रहण किया। उसकी इस विजयगाथा के कारण ही उसके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ गया। विजय अभियान में उसका मानवोचित उदार दृष्टिकोण देखकर अधिकांश राजा स्वयं ही गौरवानुभूति करते हुए उसकी शरण में पहुंच गए। उसके विजय अभियान में शालीनता एवं मानवीय गरिमा थी। अत: पराजित अथवा शरण में आए हुए राजाओं को भी ग्लानि का अनुभव नहीं हुआ। सम्राट भरत ने अपने विजय अभियान का प्रयोजन बताते हुए विजित मार बामर से कहा था अडिगेर सिकोंब तेज ओंदल्लदे। वोडवेयासेये चक्रधरगे। ओडनिद्द नपरेल्ल तलेगु वंतत्र । गुडुगोरे वित्त मन्निसिदा ॥ अर्थात् चक्रवर्ती राजा केवल यही अभिलाषा रखते हैं कि अन्य राजसमूह आकर हमारे चरणों में मस्तक नवावें । शेष धनधान्यादि से प्रयोजन नहीं रखते। उपस्थित राजागण आश्चर्य में पड़े इस निमित्त से उन लोगों के सामने ही भरत ने यथेष्ट सत्कार मागधामर का किया। मागधामर द्वारा आत्मसमर्पण एवं विनय भाव दिखाने पर भारतीय संस्कृति के दिशानिर्धारक सम्राट् स्वयं ही कह उठे होगु निन्नय नाल्लिनवन करेदु कोंडु । सागर दोलगे तेप्पिगरु । आगले संदितेन्नोलग वेदनु । मागपेंद्रगे राय मेच्चि ॥ अर्थात् भरत जी मागधामर पर संतुष्ट होकर कहने लगे कि मागध जाओ, अनेक राजाओं को वश में करके आनन्दपूर्वक रहो । मेरा कार्य तो उसी दिन हो गया। अब तुम स्वतंत्र होकर रह सकते हो। इस प्रकार के गौरवशाली विजय अभियान में कौन विजेता और कौन विजित? दोनों ही अपने को धन्य अनुभव करते हैं। इस प्रकार की राजनीति को भारतीय इतिहास में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी के प्रेरक महापुरुष सम्राट भरत ने स्थापित किया था। सम्राट भरत दिग्विजय अभियान में एक रणप्रिय योद्धा के परिवेश में रहकर भी अपने दैनिक, धार्मिक, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के प्रति सजग थे । चक्रवर्ती राजा के रूप में सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल को धर्मशासन के अन्तर्गत संगठित करने की भावना से दी राजाओं के मानमर्दन एवं आश्रित राजाओं को पुरस्कार इत्यादि से उन्हें पुरस्कृत करना पड़ता है। विजय अभियान की अबाध गति, सैनिकों की मनस्थिति और साथ में चल रहे परिवारजनों की सुख-सुविधा का भी उन्हें ध्यान रखना पड़ता था। दिग्विजय अभियान की सांस्कृतिक गरिमा को स्थापित करने के लिए उन्होंने एक आदर्श संहिता का निर्माण किया था। विजित राज्यों के नागरिकों की भावनाओं और उनकी संस्कृति का संरक्षण कर वह जन-जन की भावनाओं के समादरणीय बन गए थे। इसीलिए जनसामान्य ने श्रद्धा से अभिभूत होकर उनके नाम 'भरत' के नाम से अपने देश का नाम 'भारत' रख दिया। कहना न होगा कि आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज भी यथानाम तथागुण के न्याय से समग्र भारत के 'देशभूषण' हैं और शब्दान्तर से 'भारतभूषण' भी । आज सारे देश को ऐसे भारतभूषण आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज पर महान् गर्व है । उनके पावन व्यक्तित्व के समक्ष प्रत्येक जनमानस का मस्तक स्वयमेव श्रद्धा से नत हो जाता है। लेखक को आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने यह बताया था कि भगवान् वृषभदेव ने अपने अग्रज पुत्र का नाम भरत सृजन-संकल्प २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy