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भरतेश वैभव
-इन्द्रियजन्य सुखों पर मन के नियंत्रण को गौरव गाथा
समीक्षक : श्री सुमतप्रसाद जैन
आध्यात्मिक साहित्य के निर्माताओं में रत्नाकर वर्णी की अमर कृति 'भरतेश वैभव' को कर्नाटक साहित्य का 'गीतगोविन्द' स्वीकार किया जाता है। कन्नड़ प्रान्त के कण्ठहार तुल्य इस ग्रन्थ की मान्यता जैन समाज में वैसी ही है जैसे कि हिन्दू समाज में तुलसीकृत रामचरितमानस की। रत्नाकर वर्णी ने १५५१ ईस्वी में इस ग्रन्थरत्न का निर्माण किया था।
कन्नड़ भाषा के मध्यकालीन महाकवि रत्नाकर वर्णी का यह वृहद् काव्य 'भरतेश वैभव' आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के जीवन का एक प्रेरक एवं दिशाबोधक धर्मग्रन्थ रहा है। इस ऐतिहासिक एवं लोकप्रिय कृति ने उनके जीवन को एक दिव्य सन्देश एवं अध्यात्म का आलोक दिया है। अतः इस महाकाव्य में प्रतिपादित महान् जीवन-मूल्य आचार्य श्री के आचरण एवं साधना के विषय हैं। इस अनुपम रचना ने आचार्य श्री की चेतना को झंकृत किया था। इसीलिए आपके प्रवचनों में प्रायः भरतेश वैभव के काव्यांश की प्रमुखता रहती है । आचार्य श्री ने इस रचना के सन्देश को विश्वव्यापी बनाने के लिए इसका अनुवाद एवं सारतत्त्व स्वयं हिन्दी, मराठी एवं गुजराती में प्रस्तुत किया है और डॉ० श्यामसिंह जैन को प्रेरणा देकर इसका अनुवाद अंग्रेजी भाषा में भी करवाया है।।
चक्रवर्ती भरत ने भारतवर्ष को सर्वप्रथम एक केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत संगठित कर राष्ट्रीय एकता का स्वप्न दिया था । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने भी एक धर्माचार्य के रूप में लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष की पदयात्रा करके जैन समाज को इस युग में संगठित करने का सफल प्रयास किया है । उन्होंने देश के एक महान् रचनात्मक सन्त के रूप मे भाषागत एकता को स्थापित करते हुए दक्षिण भारत की भाषाओं के साहित्य यथा तमिल, कन्नड़ एवं मराठी की अनेक कृतियों का हिन्दी भाषा में और हिन्दी की कृतियों का दक्षिण भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, बंगाली, कन्नड़ एवं हिन्दी भाषा में मौलिक साहित्य का सृजन एवं सम्पादन किया है । वास्तव में आचार्यरत्न जी इस काव्य के नायक चक्रवर्ती भरत की भांति राष्ट्र में रागात्मक एकता को स्थापित करने में निरन्तर संलग्न रहे हैं । इसीलिए उन्होंने आत्मसाधना के साथ-साथ भारतीय भाषाओं एवं साहित्य की अपूर्व सेवा का कीर्तिमान स्थापित कर विभिन्न भाषा-भाषियों में सद्भाव के अमर सूत्रों को पिरोया है ।
___ साहित्यपुरुष आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी आज आयु की दृष्टि से एक बड़ी उम्र में पहुंच गए हैं । नेत्ररोग, मधुमेह एवं वृद्धावस्थाजन्य अन्य बीमारियों से ग्रस्त होने पर भी वे साहित्य-सेवा में निरन्तर संलग्न हैं। उनके गौरवमंडित मुखारविन्द से इस महाकाव्य के अनेक सरस पद आज भी स्वयं प्रस्फुटित हो उठते हैं । भरतेश वैभव के पद्यों का काव्यपाठ करते हुए उनके मुखमंडल पर जो सात्विक तेज प्रकट होता है, उससे यह आभास मिलता है कि मुक्ति के लिए आकुल उनकी आत्मा योगीराज भरत की वैराग्य अनुभुतियों से तादात्म्य स्थापित करने को कितनी व्याकुल है ? भरतेश वैभव का सार वास्तव में भारतीय आत्मा का अपराजेय स्वर है। यह महाकाव्य जीवन में सुखों के उपभोग, युद्धभूमि में शौर्य के प्रदर्शन, कला क्षेत्र में हृदय की विशालता, सम्पन्नता में विनय और दान एवं चिन्तन के क्षणों में वैराग्य का सन्देश देता है। यह कृति इन्द्रियजन्य सुखों अथवा सांसारिक विषयों पर मन के नियन्त्रण की गौरवगाथा है। इसीलिए आचार्य रत्न जी का पवित्र मन इसी ग्रन्थ में निरन्तर रमा रहता है। वास्तव में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि इसी ग्रन्थ के कथासार से आचार्यरत्न जी ने अपना जीवनदर्शन निर्धारित किया है अथवा उनका जीवन-दर्शन इसी ग्रन्थ के आदर्शों से साकार हो उठा है।
भरतेश वै पव का कथानायक सम्राट् भरत जैन धर्म के आद्य तीर्थंकर भगवान् श्री ऋषभदेव वृषभदेव) का ज्येष्ठ पुत्र है। भगवान् श्री वृषभदेव को वैदिक विचारधारा और पश्चात्वर्ती पौराणिक धर्मग्रन्थ यथा श्रीमद्भागवत, महाभारत, शिवपुराण, ब्रह्माण्ड पुराण के साथसाथ बौद्धधर्म ग्रंथ धम्मपद एवं आर्यमन्जु ने भी श्रद्धा के साथ स्मरण किया है। इस मेधावी राजकुमार ने पुराण पुरुषोत्तम, कल्पवृक्ष तुल्य जगतगुरु एवं युग के आदि में सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के प्रदाता एवं मानवीय व्यवस्था के नियामक अपने पिता श्री वृषभदेव के चरणों में विद्याभ्यास कर जीवन को पवित्र एवं गरिमामय बनाया था।
सृजन-संकल्प
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