________________
सम्बन्ध में आचार्य श्री ने तथ्यात्मक स्थिति को इस प्रकार प्रस्तुत किया है-"किसी आचार्य के मतानुसार पूर्वोक्त पांच अणुव्रत तथा मद्य, मांस, मधु का त्याग ये आठ मूल गुण हैं। दूसरे आचार्य के मत में १. मद्यपान त्याग, २. पंच-उदुम्बर फल का त्याग, ३. मांस त्याग, ४. मधुत्याग, ५. जीवों की दया, ६. रात्रि में भोजन न करना, ७. वीतराग भगवान् का दर्शन पूजन, और ८. वस्त्र से छाना हुआ जल पीना, ये आठ मूलगुण गणधरदेव ने गृहस्थों के बतलाएं हैं। इनमें से एक भी मूल गुण कम हो तो गृहस्थ जैन नहीं हो सकता।"
आचार्य श्री ने "दशविधानि वैयावृत्यानि" की व्याख्या करते हुए वैयावृत्य के निम्नलिखित दश भेद गिनाए हैं--(१) आचार्य वैयावृत्य (२) उपाध्याय वैयावृत्य (३) चान्द्रायण आदि व्रतों से कृशकाय तपस्वी मुनियों की वैयावृत्य (४) ज्ञान, चरित्र, शिक्षा आदि में तत्पर शिष्य मुनियों की वैयावृत्य (५) विविध रोगों से पीड़ित मुनियों की वैयावृत्य (६) वृद्ध मुनियों के शिष्यों के गण की वैयावृत्य (७) आचार्य के शिष्य मुनि-कुल की वैयावृत्य (८) चातुर्वण्य संघ की वैयावृत्य (8) नव-दीक्षित साधुओं की वैयावृत्य, एवं (१०) आचार्य आदि में समशील मनोज्ञ मुनियों की वैयावृत्य ।
छठवें बाह्य क्रिया-काण्ड के सन्दर्भ में कौन-सी भक्ति कहां करनी चाहिए इसका भी व्यवस्थित विवरण आचार्य श्री द्वारा प्रस्तुत किया गया है। आचार्य श्री ने सामान्य-ज्ञान की दृष्टि से 'दश-भक्ति' सन्दर्भ को स्वतन्त्र रूप से प्रस्तुत कर इस ग्रन्थ के गौरव को बढ़ाया है जिसमें १. ईर्यापथशुद्धि, २. श्री सिद्ध भक्ति, ३. श्री श्रुत भक्ति, ४. श्री चारित्र भक्ति, ५. योग भक्ति, ६. आचार्य भक्ति, ७. पंचगुरुभक्ति, ८. तीर्थकर भक्ति, ६. शान्ति भक्ति, १०. समाधि भक्ति, ११. निर्वाण भक्ति, १२. नन्दीश्वर भक्ति, १३. चैत्य भक्ति, १४. चतुर्दिग्वन्दना-प्रकरण जैन भक्ति के स्वरूप एवं इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।
'अह' शब्द की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा करते हुए कहा गया है कि इसमें 'अ' अक्षर परम ज्ञान का वाचक है। "र' अक्षर समस्त लोक के दर्शक का वाचक है। 'ह' अक्षर अनन्त बल का सूचक है तथा 'बिन्दु' उत्तम सुख का सूचक है
अकारः परमो बोधो रेफो विश्वावलोकद्दक् ।
हकारोऽनन्तवीर्यात्मा विन्दुस्स्यादुत्तमं सुखम् ॥ (शास्त्रसार समुच्चय, पृ० २६३) आचार्य श्री ने इस टीका पर विशेष व्याख्यान देते हुए कहा है कि अहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी तथा आचार्य परमेष्ठी के आदि अक्षर अ+अ+आ मिलकर 'आ' बनते हैं जिसमें उपाध्याय परमेष्ठी का आदि अक्षर '३' मिलकर 'ओ' बन जाता है। इसमें पांचवें परमेष्ठी मुनि का प्रथमाक्षर 'म' मिलकर 'ओम्' का निर्माण करता है। इस प्रकार आचार्य श्री ने अत्यन्त सुन्दर ढंग से 'ओम्' को पांच परमेष्ठियों का वाचक पद सिद्ध किया है। 'आचारश्चसूत्र' की व्याख्या को भी अनेक दृष्टान्तों द्वारा विशद किया गया है। मुनि-आचार की महिमा को बताते हुए कहा गया है कि जैसे तपते लोहे के ऊपर यदि थोड़ा-सा जल डाल दिया जाए तो वह उसे तत्क्षण भस्म कर देने के पश्चात् भी गर्म बना रहता है वैसे ही परमतपस्वी गुरु भी अज्ञान का नाश करके अपने 'स्व' रूप में स्थित रहते हैं। जैसे एक किसान केवल 'धान' की कामना करते हुए धान के साथ-साथ भूसा, पुआल, डंठल आदि अनायास ही प्राप्त कर लेता है वैसे ही भव्य जीव केवल मोक्ष की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, इन्द्र, धरणीन्द्र तथा नरेन्द्रादिक पद तो उन्हें अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। अतएव यति धर्म की अपेक्षा से इन्द्रिय-जन्य सुख क्षणिक और मोक्ष सुख शाश्वत है। इस भावना से सम्यग्दृष्टि सदैव शाश्वत सुख की ही इच्छा करते हैं और निःकांक्ष भावना से आत्मस्वरूप में ही लीन रहते हैं। संक्षेप में शास्त्रसार समुच्चय के चरणानुयोग अध्याय में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने श्रावक धर्म और यति धर्म सम्बन्धी उपदेश ज्ञान की जो सरिता बहाई है वह वर्तमान सन्दर्भ में जैन धर्म की प्रभावना को विशेष प्रेरणाशील बनाता है।
४. द्रव्यानुयोग-द्रव्यानुयोग एक मोक्षमार्गी अनुयोग है जिसका उद्देश्य तत्त्वसन्धान नय प्रमाणादि के द्वारा जीव, अजीव, पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष आदि तत्त्वों की चर्चा करना है
जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च ।
दव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालोकमातनुते ।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ४६) एक अन्य मान्यता के अनुसार प्रमाणों द्वारा पदार्थों के अस्तित्व को सिद्ध करना भी द्रव्यानुयोग का लक्षण स्वीकार किया गया है। शास्त्रसार समुच्चय के चतुर्थ अध्याय द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत ६ द्रव्य, ५ अस्तिकाय, ७ तत्त्व, ६ पदार्थ, ४ निक्षेप, विविध ज्ञान भेद, सप्तभंग, ५ भाव, ८ कर्म, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि विविध दार्शनिक पक्ष सूत्र-निबद्ध किए गए हैं।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है 'द्रव्यानुयोग' में 'द्रव्य' को प्रधानता प्रदान की गई है। सूत्रकार ने “अथ षड् द्रव्यानि" से इस अनुयोग का उपक्रम किया है। आचार्य श्री देशभूषण महाराज ने द्रव्य लक्षण की समीक्षात्मक विवेचना प्रस्तुत की है। "द्रवतोति , द्रव्यम्, द्रवति गच्छति परिणाम इति" पर अपना भाष्य लिखते हुए आचार्य श्री कहते हैं-"अतीत अनन्तकाल में इन्होंने परिणमन किया है और वर्तमान तथा अनागत काल में परिणाम करते हुए भी सत्ता लक्षण वाले हैं तथा रहेंगे। उत्पाद-व्यय-यौव्य से युक्त हैं एवं गुण-पर्याय सहित होने के कारण इन्हें द्रव्य कहते हैं । उपर्युक्त तीनों बातों से पृथक् द्रव्य कभी नहीं रहता।"
द्रव्य सम्बन्धी अनेक शंकाओं का निराकरण करते हुए आचार्य श्री कहते हैं, "प्रति समय छह द्रव्यों में जो उत्पाद और व्यय होता
सृजन-संकल्प
२३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org