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________________ ऊंट ने कहा-देखो न, कहीं बगुले की चोंच टेढ़ी है तो कहीं कुत्ते की पूंछ टेढ़ी है। कहीं हाथी की संड टेढ़ी है। मित्र, सब टेढ़े ही टेढ़े इस दुनिया में न जाने कहाँ से भर गये हैं ? सियार ने कहा-ऊंट मामा, यह तो ठीक कहा, लेकिन जरा अपने को तो देखो कि तुम कितनी जगह से टेढ़े हो। मनुष्य का भी ऐसा ही हाल है। वह भी दूसरों के दोष तो देखता है । यह नहीं देखता कि मुझ में भी कितने दोष भरे पड़े हैं। यह तो जानी और मानी हुई बात है कि दूसरे के दोषों को देखने से अपने जीवन में भी दोष आवेंगे और गुणों को देखने से गुण । अत: हमारा जो खराब स्वभाव है कि हम दूसरे के दोषों को ही देखा करते हैं, वह छोड़कर गुणों की तरफ ही अपनी दृष्टि डालनी चाहिए और दोषों की तरफ से आंख मींचकर ध्यान हटा लेना चाहिए।" (मानव जीवन, पृष्ठ १५) वस्तुतः आचार्य श्री अपनी उद्बोधक रचनाओं के माध्यम से एक धर्ममय एवं सुखी समाज की सृष्टि करना चाहते हैं। उनका चिन्तन शाश्वत एवं समाजोन्मुखी है। (५) अन्य विधाएँ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने अपनी राष्ट्रव्यापी पदयात्रा करते समय लगभग सन् १९४०-४१ में पं० ऐलप्पा शास्त्री के शास्त्र भण्डार में एक महान् एवं अद्भुत ग्रन्थराज 'सिरि भूवलय' का अवलोकन किया था। उस समय आचार्य श्री नवदीक्षित मुनि थे और प्रभावक धर्मयात्राओं के लिए दक्षिण का भ्रमण कर रहे थे। इस महान् ग्रन्थराज के पूर्ण वैभव का वह उस समय परिचय प्राप्त नहीं कर पाए। - आचार्य श्री के महानगरी दिल्ली में चातुर्मास के समय पं० ऐलप्पा शास्त्री के पधार जाने से आचार्य श्री को इस महान् ग्रन्थ का पूर्ण परिचय प्राप्त हुआ। प्रस्तुत ग्रंथ ६४ अङ्कों में है जिसमें कन्नड़ भाषा के ह्रस्व तथा दीर्घ आदि अक्षर बनते हैं। यह ग्रन्थराज जैनधर्म की विशेषता तथा अन्य धर्मों की संस्कृति का परिचय देता है। इसमें ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न विषय समाहित हैं। इस ग्रन्थ में १८ महान् भाषाएं तथा ७०० कनिष्ठ भाषाएं गर्भित हैं । आचार्य श्री के प्रभावक व्यक्तित्व से मुग्ध होकर दानवीर सेठ जुगलकिशोर बिरला ने इस ग्रन्थ के शोधकार्य में व्यय होनेवाली राशि का भार स्वयं वहन करने का दायित्व ले लिया । आचार्य श्री के सप्रयासों से जब भारत के विद्यानुरागी राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को इस ग्रन्थ से परिचित कराया गया तो उन्होंने भूवलय को विश्व का आठवां आश्चर्य बताया और इस ग्रन्थ को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने की भावना से इसे राष्ट्रीय सम्पत्ति बना दिया। कर्नाटक राज्य सरकार ने भी इस ग्रन्थ को अंग्रेजी अंकों में बदलने के लिए स्वर्गीय पं० ऐलप्पा शास्त्री को अनुदान रूप में बारह हजार रुपये की राशि प्रदान की थी। आचार्यरत्न श्री देशभुषण जी ने विश्व साहित्य की अंक शास्त्र में निबद्ध सर्वभाषामय काव्य-रचना 'श्री भूवलय' के अंशों को चक्रबन्ध पद्धति से प्रकट किया है । महान् आचार्य श्री कुमुदेन्दु ने भूवलय में अंकों के द्वारा प्राचीन महाभारत 'भारत जयाख्यान' को समाहित किया था। आचार्य श्री देशभूषण जी ने अपनी अनवरत साहित्य साधना से श्री भूवलयान्तर्गत जयभगवद् गीता को सर्वसुलभ बना दिया है। महाराज श्री द्वारा श्री भूवलय में से निकाले गए श्री जयभगवद् गीता के कुछ मूल श्लोक एवं उन्हीं के द्वारा किया गया उसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है : 'स' रुवबांधवर नोयिसि बर्पराजदि, सिरिदैगंबरि 'र' आ ज्य। विरलेनगेंदाग कृष्णन पार्थगे, कुरुक्षेत्र दोलरिहन न "अ"। "" शबाद मेलल्लवे अंतरंगद, कसवेंब अरिय गेल्व - "क"। य शदरिहनन नीनागुमत्तामेले, कसरि हननवप्प न् "ग्" ॥ समस्त बन्धुओं की हिंसा करके प्राप्त होने वाले राज्य की अपेक्षा अविनाशी साम्राज्य को प्राप्त करने के लिये मैं दिगम्बर साधु बन कर उसे प्राप्त करूँ-ऐसे पार्थ के वचन सुन कर कृष्ण कहते हैं कि सबसे पहले कुरुक्षेत्र के मैदान में जाकर शत्रु को पराजित कर । तत्पश्चात् मन-शत्रु-क्रोधादि कषायरूप अन्तरंग शत्रु के जीतने के लिये युद्ध कर---अन्तर्वासना रूप ममतामय शत्रु-दल का विनाश कर, ऐसा करने से तू अन्तर्बाह्य शत्रुओं को जीत कर अरिहंत बन जायगा और तुझे वह शाश्वत राज्य प्राप्त हो जाएगा। तब तू सम्पूर्ण विश्व का परमात्मा हो जाएगा। 'व' न दोलु होक्काग तपदाशे बरलिल्ल, गुणवल्लि कोलादुरि "क"। अणदेशत्रवजललनु तरिकालनु, जनमित्त, तपकयदुगुरु "ब्। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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