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साहित्य-पुरुष : आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी
-साहित्य को श्रीवृद्धि को समर्पित अमृत-पुत्र आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज की साहित्य-साधना
डॉ. रमेशचन्द्र गुप्त श्री सुमतप्रसाद जैन
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की साहित्य-समाराधना का प्रेरणास्रोत संत-समागम एवं बाल वैराग्य है। बाल्यावस्था में ही मातापिता की अकस्मात् मृत्यु हो जाने से बालगौड़ा (वर्तमान में श्री देशभृषण जी) को अनेक विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। सरल मन के इस अनाथ बालक ने सांसारिक प्रपंचों को देखकर यह अच्छी तरह अनुभव कर लिया था कि संसार में सब सम्बन्ध स्वार्थों पर आधारित हैं।
आचार्य श्री ने किशोरावस्था पार करके यौवन की ओर पद-निक्षेप किया ही था कि उनके परिवार में अनायास एक ऐसी घटना घटित हुई जिससे उनका वैराग्य और अधिक प्रगाढ़ हो गया। अपनी नवविवाहिता चाची के कुएं में से निकाले गए शव के बीभत्स रूप को देखकर उन्हें जीवन की क्षणभंगुरता और संसार की असारता का बोध हो गया। उन्होंने तत्काल यह निश्चय कर लिया कि अब मैं विवाह नहीं करूंगा। आचार्य श्री के अनुसार वह करुणाजनक दृश्य एक वर्ष तक निरन्तर उनकी आंखों के समक्ष साकार रूप लेकर खड़ा हो जाया करता था।
___संयोग की बात है कि उन्हीं दिनों आपको आचार्य पायसागर जी एवं आचार्य श्री जयकीति जी महाराज का पावन सान्निध्य अनायास ही मिल गया। आचार्य श्री पायसागर जी ने आपको अष्टमूल गुणों के पालन का नियम दिया और आचार्य श्री जयकीर्ति जी महाराज ने आपको यज्ञोपवीत प्रदान किया। इन दोनों संतों की कृपा से आपके जीवन में अभूतपूर्व क्रांति आ गई और आपने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका का विधिवत् अभ्यास आरम्भ कर दिया। शुभयोग से आचार्य श्री जयकीति जी ने इनमें छिपी हुई प्रतिभा एवं रचनात्मक शक्ति को पहचानकर इन्हें अपने शिष्यत्व में लेना स्वीकार कर लिया। उन्होंने एक आदर्श गुरु के रूप में अपने शिष्य की समुचित शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध कर दिया। उनके पावन संसर्ग में बालगौड़ा ने संस्कृत का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के अतिरिक्त द्रव्य संग्रह, धनंजय नाममाला, सर्वार्थसिद्धि इत्यादि महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन किया। आचार्य श्री जयकीति ने इनके समुचित विकास के लिए इन्हें संस्कृत, कन्नड़ एवं मराठी के सैकड़ों पदों एवं सूक्तियों को भी कंठस्थ करा दिया। विद्यानुरागी श्री देशभूषण जी अपने धर्मगुरु के असाधारण कृतित्व एवं विद्वत्ता पर असीम श्रद्धा रखते थे। श्री जयकीति जी महाराज की कठोर तपस्या, असाधारण प्रवचन शैली एवं हस्तलेख के अक्षरों की सुन्दर बनावट ने भी इन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया। उनके द्वारा एक पोस्टकार्ड पर तत्त्वार्थ सूत्र तथा भक्तामर के ४८ छन्द लिखे देखकर आचार्य देशभूषण जी को भी कुछ करने की प्रेरणा मिलती थी।
सन् १९३८ में आचार्य श्री जयकीर्ति जी ने अपने इस शिष्य की धर्मनिष्ठा एवं स्वाध्याय की प्रवृत्ति से सन्तुष्ट होकर इन्हें धर्मप्रभावना के निमित्त स्वतन्त्र रूप से कार्य करने का आदेश दे दिया और स्वयं संघ सहित तीर्थराज श्री सम्मेद शिखर जी की पावन बन्दना के निमित्त प्रस्थान कर गए । मुनि श्री देशभूषण जी ने गुरु के आदेशानुसार भगवान् बाहुबली की पावन प्रतिमा की छाया में संस्कृत, कन्नड़, मराठी इत्यादि भाषाओं के गहन अध्ययन में स्वयं को समर्पित कर दिया। इन्हीं दिनों में आपको अपने धर्मगुरु श्री जयकीर्ति जी महाराज के आदर्श उत्सर्ग एवं समाधिपूर्वक प्राण-विसर्जन का हृदयद्रावक समाचार मिला। इस अप्रत्याशित एवं दुःखद समाचार से आपको मर्मान्तक पीड़ा पहुंची। अपने पूज्य गुरु के सात्त्विक एवं दिव्य गुणों का स्मरण करते हुए आपने उनके चरणचिह्नों पर चलने का शुभ संकल्प लिया।
इसी संकल्प की पूर्ति के लिए आपने ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में जाकर तीर्थंकर वाणी का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया और इसी क्रम में अपने विहार-पथ में आने वाले जिनालयों, जैन पुस्तकालयों, मठों एवं तीर्थक्षेत्रों में संरक्षित एवं सुरक्षित जैन धर्म की असंख्य पांडुलिपियों का अवलोकन भी किया। स्वाधीन भारत से पूर्व आचार्य श्री का कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत एवं उसके निकटवर्ती हिन्दी राज्यों के कुछ प्रान्त रहे हैं । सन् १९३८ से १९४७ तक का कालखण्ड आचार्य श्री की प्रभावक धर्मयात्राओं के लिए विख्यात है। इन पदयात्राओं के सन्दर्भ में आचार्य श्री का व्यापक लोकसम्पर्क हुआ और जैन धर्म के शाश्वत मूल्यों के प्रचार के लिए उन्होंने एक तर्कसम्मत वैज्ञानिक दृष्टिकोण निश्चित कर लिया। इन धर्मयात्राओं में उन्होंने समाज के विद्वत्-वर्ग से गम्भीर विचार-विमर्श किया। विद्यानुरागी महाराज श्री का स्वाध्याय, भाषा
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