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सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ।।२२॥ हे भगवान् ! पुत्रों को तो सैकड़ों स्त्रियां जन्म देती हैं किन्तु आप सरीखे पुत्र को आपकी माता के सिवाय अन्य किसी माता ने जन्म नहीं दिया। सो ठीक है, सूर्य को धारण तो सभी दिशाएं करती हैं परन्तु सूर्य का उदय तो पूर्व दिशा से ही हुआ करता है, अन्य किसी से नहीं होता।
इसलिए तेजस्वी गुणी पुत्र उत्पन्न करने के लिये माता-पिता को विशेष सावधानी रखनी चाहिये। गर्भाधान के समय पति और पत्नी की ऐसी शुभ भावना होनी चाहिये कि हमारे अच्छा तेजस्वी , गुणवान्, विद्वान्, धर्मात्मा, कुलदीपक पुत्र हो जो कि अपने गुणों तथा शुभ कार्यों से संसार में अपना तथा हमारे कुल का यश फैलाए । ऐसी शुभ कामना हृदय में रख कर गर्भाधान संस्कार किया जाए। इस विषय को आदिपुराण से और भी अधिक जान लेना चाहिये ।
गर्भाधान हो जाने पर पति-पत्नी को सन्तान-प्रसव होने तक पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ रहना चाहिये । इस ब्रह्मचर्य के पालन से गर्भस्थ सन्तान पर सदाचार के संस्कार स्थापित होते हैं । दुराचारी सन्तान उत्पन्न होने में अन्य कारणों के अतिरिक्त एक विशेष कारण यह भी है कि उन सन्तानों के माता पिताओं ने गर्भाधान के बाद ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया। इसके सिवाय उस समय की कामक्रीड़ा गर्भस्थ शिशु के शरीर पर तथा स्त्री के शरीर पर भी बुरा प्रभाव डालती है।।
ब्रह्मचर्य धारण करने के साथ ही साथ पति-पत्नी को गर्भाधान के दिनों में परस्पर बहुत शान्ति, उत्साह, हर्ष के साथ रहना चाहिए । पत्नी को सन्तुष्ट रखना, उसकी इच्छाओं की पूर्ति करना, उसको कोई चिन्ता, शोक, भय, खेद, क्लेश, कलह पैदा न होने की व्यवस्था करना पति का कर्तव्य है । अपनी गभिणी भार्या को सुन्दर, गुणी, यशस्वी पुरुषों के चित्र दिखाना, उसको पराक्रमी, गुणी, विद्वान् पुरुषों के चरित्र सुनाना, उसका चित्त हर्षित रखना बहुन आवश्यक है। गर्भिणी पत्नी का कर्तव्य है कि वह यथासंभव निरालस्य रहकर हलके परिश्रम के कार्य करती रहे। भारी परिश्रम के कार्य न करे, भागना, दौड़ना, जल्दी सीढ़ियों पर उतरना-चढ़ना बन्द रक्खे तथा प्रतिदिन भगवान् के दर्शन करे, शास्त्रों का स्वाध्याय करती रहे । अकलंक देव, समन्तभद्र, जिनसेन, वीरसेन, भद्रबाहु, चन्द्रगुप्त आदि के जीवन-चरित्र पढ़े । तीर्थंकरों, भरत, बाहुबली, सुकुमाल, जम्बूकुमार, प्रद्य म्न, बलभद्र, नारायण, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, पवनंजय, हनुमान, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, अभिमन्यु आदि महान् पराक्रमी, गुणी, बुद्धिमान, लोकोत्तर व्यक्तियों की जीवन-घटनाओं को बड़ी रुचि और उत्साह से पढ़ती रहे । उनके चित्र बड़े ध्यान से देखती रहे ।
ऐसे कार्यों का प्रभाव गर्भस्थ सन्तान पर बहुत अच्छा पड़ता है । माता के विचारों और भावना के संस्कार गर्भस्थ सन्तान के ऊपर अंकित हो जाते हैं। महाभारत में अभिमन्यु के विषय में कथा आई है कि अभिमन्यु जब सुभद्रा के गर्भ में था तो एक दिन उसे कुछ पीड़ा हुई तो अर्जुन ने उसका चित्त उस ओर से हटाने के लिये सुभद्रा को चित्र खींचकर चक्रव्यूह (गोल आकार में सेना को खड़ी करना) तोड़ने की विधि बतलाई । सुभद्रा ने उसे बहुत ध्यान से सुना और वह चित्र भी देखा । अर्जुन जब उसको चक्रव्यूह तोड़कर घुस जाने की विधि समझा चुका तो सुभद्रा को नींद आ गई। अत: चक्रव्यूह से बाहर निकलने की जो विधि अर्जुन ने समझाई उसे वह न सुन पाई। इसका प्रभाव यह हुआ कि गर्भस्थ बालक अभिमन्यु के हृदय पर सुभद्रा की समझ के अनुसार चक्रव्यूह तोड़ने के संस्कार जम गये पर चक्रव्यूह से बाहर निकलने की वार्ता उसे मालूम न हो पाई। तदनुसार कौरवों के जिस चक्रव्यूह को महा बलवान् भीम भी न तोड़ पाया उस चक्रव्यूह का अभिमन्यु ने बिना सीखे अपने नवयौवन में तोड़कर गर्भाधान के समय के संस्कार का परिचय दिया।
सारांश यह है कि गर्भाधान के बाद सन्तान उत्पन्न होने तक पत्नी के जैसे अच्छे-बुरे विचार होंगे वैसे ही संस्कार सन्तान पर आवेंगे। इसके अतिरिक्त गभिणी स्त्री को अपना रहन-सहन, खान-पान, बोलना-चालना आदि भी ठीक रखना चाहिए। उन दिनों में भोजन शुद्ध, हलका, सात्विक होना चाहिये । आंखों में सुर्मा आदि न लगाना चाहिये, जिससे शिशु के नेत्र ठीक रहें। उबटन न करना चाहिये । घर साफ-सुथरे रहने चाहिये और हृदय में कोई बुरी भावना न आने देनी चाहिये । इस तरह गर्भाधान के दिनों में स्त्री को अपने गर्भस्थ शिशु की आत्मा पर अच्छे संस्कार उत्पन्न करने के लिये सावधानी से अपना आचार-विचार अच्छा शुभ रखना चाहिये ।
बालक उत्पन्न हो जाने पर उसका ठीक ढंग से पालन-पोषण करना चाहिये । दूध पिलाते समय माता का चित्त प्रसन्न होना चाहिए। क्रोध, क्षोभ, भय, घृणा आदि के समय बब्वे को दुध मान पिलाना चाहिये। उतको लोरियां देते समय अच्छे उपदेश, उच्च भावना के सूचक सुन्दर गीत गाने चाहिये और अच्छी उच्च शुभ भावना से प्रेम का हाथ बच्चे पर फेरते रहना
- अमृत-कण .
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