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________________ इसी तरह अन्य खूख्वार भयानक पशुओं तथा दुष्ट मनुष्यों के हृदय में भी अनुकम्पा छिपी रहती है जिससे कि अपने बच्चों तथा संबंधियों को दुःखी देखकर उनका मन व्याकुल हो उठता है । इससे जाना जाता है कि दूसरों को मारना, सताना, दुःख देना पाप है और दूसरे जीवों पर दया करना बड़ा धर्म है। बुद्धिमान् मनुष्यों का कर्तव्य है कि सदा दीन-दुःखी जीवों पर अनुकम्पा करके उनके दुःख दूर करते रहें। जो मनुष्य दयालु चित्त होते हैं, दूसरे जीव उनसे डरते नहीं हैं । निडर होकर उनके पास आ जाते हैं । उनसे प्रेम करते हैं। खूख्वार निर्दय पशुओं पर भी उनके दयाभाव का प्रभाव पड़ता है और वे भी उन दयालु पुरुषों के सामने अपनी क्रूरता छोड़ देते हैं। अतः इस महान धर्म को कभी न छोड़ना चाहिये । अपने घर पर यदि कोई भूखा आए तो स्वयं अपना भोजन उसको करा दो। पशु, पक्षी, कीड़ा, मकोड़ा कोई भी जीव हो सदा सब पर दया करते रहो। धार्मिक पुरुष का मुख्य चिह्न दया है । जैनधर्म दया पर आश्रित है। अतः संसार के दुःखी जीवों का अपनी शक्ति के अनुसार दुःख मिटाना प्रत्येक जैन का कर्तव्य है। तृष्णा संसार के समस्त प्राणी इन्द्रियों के दास बनकर एक ही दिशा में दौड़े जा रहे हैं। अपने मन वचन और शरीर की शक्ति का उपयोग अपनी इन्द्रियों की प्यास बुझाने के लिये या इन्द्रियों को प्रसन्न करने के लिये कर रहे हैं। इसी भाग-दौड़ में उनकी सारी आयु बीत जाती है, सारा बल-विक्रम नष्ट हो जाता है परन्तु उनकी प्यास नहीं बुझ पाती । जिस तरह खारा पानी पीने से प्यास बुझती नहीं है, और अधिक बढ़ती है, इसी प्रकार इन्द्रियों के विषय-भोग पहले तो अपनी इच्छानुसार मिलते नहीं हैं क्योंकि प्रत्येक प्राणी को इतनी तृष्णा है कि वह समस्त संसार के पदार्थ अकेला ही ले लेना चाहता है, तब अनन्त प्राणियों की इच्छा कहीं पूर्ण हो सकती है ! आत्मानुशासन में श्री गुणभद्र आचार्य ने कहा है आशागतः प्रतिप्राणि यत्र विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथातो विषयषिता ।। प्रत्येक प्राणी को इतनी दीर्घ आशा लगी हुई है कि उसकी आशा के गहरे गड्ढे को भरने के लिये समस्त संसार परमाणु समान दीखता है। इस दशा में किस-किस जीव की आशा पूर्ति के लिये सांसारिक वस्तुओं का कितना-कितना हिस्सा आ सकता है? अर्थात् सारे संसार के पदार्थों से एक जीव की भी आशा पूर्ण नहीं हो सकती तब समस्त जीवों की इच्छा पूर्ण होने के लिये कुछ भी नहीं रहता। इस कारण विषयों की इच्छा करना व्यर्थ है। हाथी जैसा विद्यालकाय और महाबलवान प्राणी कागज की बनी हुई हथिनी को सच्ची हथिनी समझ कर उससे अपनी विषय-वासना तृप्त करने के लिये उसकी ओर दौड़ता है । उसको पता नहीं होता कि जहाँ वह कागज की हथिनी रक्खी है उसके नीचे खड्डा बना हुआ है । परिणाम यह होता है कि वह हाथी वहां पहुंचते ही उस खड्ड में जा पड़ता है, और मनुष्य वहां से उसे पकड़ कर ले जाते हैं, फिर जन्म भर उसे पराधीनता में रहना पड़ता है। मछियारे मछली पकड़ने के लिये लोहे के कांटे पर जरा-सा आटा लगा देते हैं । मछली उस आटे को खाने के लिये ज्यों ही उस पर झपटती है कि वह लोहे का कांटा उसके गले में फंस जाता है और जीभ की लालसा पूर्ण करने के लिये वह अपने प्राणों से हाथ धो लेती है। भौंरा सुगन्धि का बड़ा लोभी होता है । सुगन्धित पदार्थों को सूंघने के लिये उधर जा पहुंचता है। सूंघते-सूंघते वहाँ से हटना नहीं चाहता, और कभी-कभी तो अपने प्राण भी वहीं दे बैठता है। कमल का फूल दिन में खिलता है और रात्रि को बन्द हो जाता है। दिन में उस खिले हुए कमल के फूल पर भौंरा उसकी सुगन्धि सूंघने आ बैठता है, और सूंघते-सूंघते वहीं बैठा रहता है। अनेक बार रात को भी उस कमल के भीतर रह कर अपने प्राण तक दे डालता है। अपनी आंखों की प्यास बुझाने के लिये पतंगा रात को दीपक, लालटेन, बिजली के जलते हुए बल्व पर झपटता है और वहीं पर जल कर मर जाता है। आजकल रात में असंख्य पतंगे प्रतिदिन इसी तरह अपने प्राणों की बाजी लगाकर अपनी आंखों की लालसा पूरी करने का यत्न करते हैं और उसी तरह यत्न में मर जाते हैं। हिरण को मीठे सुरीले बाजे की ध्वनि सुनने में बहुत रुचि होती है। इसी कारण हिरणों को पकड़ने के लिये कुछ मनुष्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज भभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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